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अध्याय १ सूत्र २० "आत्मा" शब्दको सुनकर आत्माके गुणोंको हृदयमें प्रगट करना सो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । अक्षर और पदार्थमें वाचक-वाच्य सम्बन्ध है। 'वाचक' शब्द है उसका ज्ञान मतिज्ञान है, और उसके निमित्तसे 'वाच्य' का ज्ञान होना सो श्रुतज्ञान है । परमार्थसे ज्ञान कोई अक्षर नहीं है; अक्षर तो जड़ हैं; वह पुलस्कन्धकी पर्याय है, वह निमित्त मात्र है । 'अक्षरात्मक श्रुतज्ञान' कहने पर कार्यमें कारणका ( निमित्तका ) मात्र उपचार किया गया समझना चाहिए।
(४) श्रुतज्ञान ज्ञानगुणकी पर्याय है; उसके होनेमें मतिज्ञान निमित्तमात्र है । श्र तज्ञानसे पूर्व ज्ञानगुणकी मतिज्ञानरूप पर्याय होती है, और उस उपयोगरूप पर्यायका व्यय होने पर श्रु तज्ञान प्रगट होता है, इसलिये मतिज्ञानका व्यय श्रुतज्ञानका निमित्त है; वह 'अभावरूप निमित्त' है, अर्थात् मतिज्ञान का जो व्यय होता है वह श्र तज्ञानको उत्पन्न नही करता; किन्तु श्रु तज्ञान तो अपने उपादान कारणसे उत्पन्न होता है । ( मतिज्ञानसे श्रुतज्ञान अधिक विशुद्ध होता है।)
(५) प्रश्न-जगतमे कारणके समान ही कार्य होता है; इसलिये मतिज्ञानके समान ही श्र तज्ञान होना चाहिये ?
उत्तर-उपादान कारणके समान कार्य होता है; निमित्त कारणके समान नही । जैसे घटकी उत्पत्तिमें दण्ड, चक्र, कुम्हार, आकाश, इत्यादि निमित्त कारण होते हैं, किन्तु उत्पन्न हुआ घट उन दण्ड चक्र कुम्हारा
आकाश आदिके समान नही होता, किन्तु वह भिन्न स्वरूप ही (मिट्टीके स्वरूप ही ) होता है। इसीप्रकार श्रु तज्ञानके उत्पन्न होनेमे मति नाम (केवल नाम ) मात्र बाह्य कारण है; और उसका स्वरूप श्रु तज्ञानसे भिन्न है। .
(६) एकबार श्रु तज्ञानके होने पर फिर जब विचार प्रलम्बित होता है । तब दूसरा श्रु तज्ञान मतिज्ञानके वीचमे आये बिना भी उत्पन्न हो जाता है।
प्रश्न-ऐसे श्रु तज्ञानमें 'मतिपूर्व' इस सूत्रमे दी गई व्याख्या कैसे लागू होती है ?