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: ' मोक्षशास्त्र है और क्रम क्रमसे सम्यक् चारित्र बढ़ने पर जितना राग-द्वेषका अभाव होता है उतनी चारित्र अपेक्षा प्रात्माको अहिंसा है । राग द्वेष सर्वथा दूर हो जाता है यह आत्माकी सम्पूर्ण अहिंसा है। ऐसी अहिंसा जीवका धर्म है इसप्रकार अनन्त ज्ञानियोंने कहा है। इससे विरुद्ध जो मान्यता है सो धर्मका अवर्णवाद है।
७. देवके अवर्णवादका स्वरूप स्वर्गके देवके एक प्रकारका अवर्णवाद ५ वें पैराग्राफमें बतलाया है। उसके बाद ये देव मांसभक्षण करते हैं, मद्यपान करते हैं, भोजनादिक करते हैं, मनुष्यिनी-स्त्रियोंके साथ कामसेवन करते हैं या मनुष्यों, देवीसे इत्यादि मान्यता देवका अवर्णवाद है।
८-ये पांच प्रकारके अवर्णवाद दर्शनमोहनीयके आस्रवके कारण हैं और जो दर्शन मोह है सो अनन्त संसारका कारण है।
९. इस सूत्रका सिद्धान्त शुभ विकल्पसे धर्म होता है ऐसी मान्यतारूप अगृहीत मिथ्यात्व तो जीवके अनादिसे चला आया है । मनुष्य गतिमें जीव जिस कुलमें जन्म पाता है उस कुलसे अधिकतर किसी न किसी प्रकारसे धर्मकी मान्यता होती है। पुनश्च उस कुलधर्ममे किसीको देवरूंपसे, किसीको गुरुरूपसे, किसी पुस्तकको शास्त्ररूपसे और किसी क्रियाको धर्मरूपसे माना जाता है। जीवको बचपनमें इस मान्यताका पोषण मिलता है और बड़ी उम्रमें अपने कुलके धर्मस्थानमें जानेपर वहाँ भी मुख्यरूपसे उसी मान्यताका पोषण मिलता है। इस अवस्थामें जीव विवेक पूर्वक सत्य असत्यका निर्णय अधिकतर नही करता और सत्य-असत्यके विवेकसे रहित दशा होनेसे सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म पर अनेक प्रकार झूठे आरोप करता है । यह मान्यता इस भवमें नई ग्रहण की हुई होनेसे और मिथ्या होनेसे उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । ये अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व अनन्त संसारके कारण हैं। इसलिए सच्चे-देव-गुरु-शास्त्र-धर्मका और अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप समझकर अगृहीत तथा गृहीत दोनो मिथ्यात्वका नाश करनेके लिए