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अध्याय ६ सूत्र १३-१४
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ज्ञानियोंका उपदेश है । ( अगृहीत मिथ्यात्वका विषय आठवें बन्ध अधिकारमें आवेगा ) । आत्माको न मानना, सत्य मोक्षमार्गको दूषित - कल्पित करना, असत् मार्गको सत्य मोक्षमार्ग मानना, परम सत्य वीतरागी विज्ञानमय उपदेशकी निंदा करना - इत्यादि जो जो कार्य सम्यग्दर्शनको मलिन करते हैं वे सब दर्शन मोहनीयके प्रास्रवके कारण हैं ॥१३॥
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अब चारित्र मोहनीयके आस्रवके कारण बतलाते हैं कषायोदयाचीत्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥
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अर्थ - [ कषायोदयात् ] षायके उदयसे [ तीव्र परिणामः ] तीव्र परिणाम होना सो [ चारित्रमोहस्य ] चारित्र मोहनीयके प्रास्रवका कारण है ।
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टीका
१. कषायकी व्याख्या इस अध्यायके पाँचवें सूत्रमें कही जा चुकी है । उदयका प्रर्थं विपाक अनुभव है । ऐसा समझना चाहिये कि जीव कषाय कर्मके उदयमे युक्त होकर जितना राग-द्वेष करता है उतना उस जीवके कषायका उदय - - विपाक ( - अनुभव ) हुआ । कषायकर्मके उदयमें युक्त होनेसे जीवको जो तीव्रभाव होता है वह चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रवका कारण ( - निमित्त ) है ऐसा समझना ।
२ – चारित्रमोहनीयके श्रस्रवका इस सूत्र में संक्षेपसे वर्णन है; उसका विस्तृत वर्णन निम्नप्रकार है:
(१) अपने तथा परको कषाय उत्पन्न करना ।
(२) तपस्वीजनोको चारित्र दोष लगाना ।
(३) संक्लेश परिणामको उत्पन्न करानेवाला भेष, व्रत इत्यादि धारण करना इत्यादि लक्षरणवाला परिणाम
कषायकर्मके प्रसवका
कारण है ।
(१) गरीबोंका अतिहास्य करना ।
(२) बहुत ज्यादा व्यर्थ प्रलाप करना । (३) हँसीका स्वभाव रखना ।