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अध्याय ६ सूत्र १३
५२१ सम्यग्दर्शन - प्रगट होनेके बाद जिसे सातवां-छट्ठा गुण-स्थान प्रगट हो उसके सच्चा साधुत्व होता है, उनके शरीर परकी स्पर्शेन्द्रियका राग, लज्जा तथा रक्षादिकका राग भी दूर हो जाता है। इसीलिये उनके सर्दी, गर्मी, बरसात आदिसे रक्षा करनेका भाव नही होता; मात्र संयमके हेतु इस पदके योग्य निर्दोष शुद्ध आहारकी इच्छा होती है, इसोसे उस गुणस्थानवाले जीवोंके अर्थात् साधुके शरीर या संयमकी रक्षाके लिये भी वस्त्र नही होते । तथापि ऐसा मानना कि जब तीर्थङ्कर भगवान दीक्षा लेते हैं तब धर्म बुद्धिसे देव उन्हे वस्त्र देते हैं और भगवान उसे अपने साथ रखते हैं। सो न्याय विरुद्ध है । इसमे संघ और देव दोनोंका अवर्णवाद है । स्त्रीलिंगके साधुत्व मानना, अतिशूद्र जीवोंको साधुत्व होना मानना सो संघका अवर्णवाद है । देहके ममत्वसे रहित, निर्ग्रन्थ, वीतराग मुनियोके देहको अपवित्र कहना, निर्लज्ज कहना, बेशरम कहना, तथा ऐसा कहना कि 'जब यहाँ भी दुःख भोगते हैं तो परलोकमे कैसे सुखी होगे' सो संघका अवर्णवाद है ।
साधु-संघ चार प्रकारका है। वह इसप्रकार है:-जिनके ऋद्धि प्रगट हुई हो सो ऋषि; जिनके अवधि-मनःपर्यय ज्ञान हो सो मुनि, जो इंद्रियोंको जीते सो यति और अनगार यानि सामान्य साधु।
६.धर्मके अवर्णवादका स्वरूप जो आत्मस्वभावके स्वाश्रयसे शुद्ध परिणमन है सो धर्म है; सम्यग्दर्शन प्रगट होने पर यह धर्म प्रारम्भ होता है। शरीरकी क्रियासे धर्म नही होता, पुण्य विकार है अतः उससे धर्म नही होता तथा वह धर्ममे सहायक नही होता । ऐसा धर्मका स्वरूप है। इससे विपरीत मानना सो धर्मका अवर्णवाद है। "जिनेन्द्र भगवानके कहे हुए धर्ममे कुछ भी गुण नही है, उसके सेवन करनेवाले असुर होगे, तीर्थङ्कर भगवानने जो धर्म कहा है उसी रूपमे जगत्के अन्यमतोके प्रवर्तक भी कहते हैं, सबका ध्येय समान है।" ऐसा मानना सो धर्मका अवर्णवाद है।
_ आत्माके यथार्थ स्वरूपको समझना, और सच्ची मान्यता करना तथा खोटी मान्यता छोड़ना सो सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे आत्माकी अहिसा