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मोक्षशास्त्र
इत्यादि प्रकारसे आत्माके शुद्ध स्वरूप में दोषोंकी कल्पना श्रात्मा केअनंत संसारका कारण है । इसप्रकार केवली भगवानके, अवर्णवादका
स्वरूप कहा ।
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४. श्रुतके अवर्णवादका स्वरूप
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११- जो शास्त्र न्याय की कसौटी चढ़ाने पर अर्थात् सम्यग्ज्ञानके द्वारा परीक्षा करने पर प्रयोजनभूत बातों में सच्चे - यथार्थ मालूम पड़े, उसे ही यथार्थ ठीक मानना चाहिये । जब लोगों की स्मरण शक्ति कमजोर हो तब ही शास्त्र लिखनेकी पद्धति होती है; इसीलिये लिखे हुए शास्त्र गगघर श्रुत केवली के गुथे हुये शब्दोंमें ही न हो, किन्तु सम्यग्ज्ञानी आचार्यों ने उनके यथार्थ भाव जानकर अपनी भाषा में शाखरूपमें गुथे हैं वह भी सत् श्रुत हैं ।
( २ ) सम्यग्ज्ञानी श्राचार्य श्रादिके बनाये हुये शास्त्रोंकी निंदा करना सो अपने सम्यग्ज्ञानकी ही निंदा करनेके सदृश है; क्योंकि जिसने सच्चे शास्त्रकी निंदा की उसका ऐसा भाव हुवा कि मुझे ऐसे सच्चे. निमित्तका संयोग न हो किन्तु खोटे निमित्तका संयोग हो अर्थात् मेरा उपादान सम्यग्ज्ञानके योग्य न हो किन्तु मिथ्याज्ञानके योग्य हो ।
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( ३ ) किसी ग्रंथ के कर्ताके रूपमें तीर्थंकर भगुवानुका, केवलीका, गणधरका या आचार्यका नाम दिया हो इसीलिये उसे - सच्चा ही शास्त्र मान लेना सो न्याय संगत नहीं । मुमुक्षु जोवोंको तत्त्व दृष्टिसे परीक्षा. करके सत्य-असत्यका निर्णय करना चाहिये । भगवानके नामसे किसीने कल्पित शास्त्र बनाया हो उसे सत्श्रुत मान लेना सो सत्श्रुतका अवर्णवाद है; जिन शास्त्रोंमें मांसभक्षण, मदिरापान, वेदनासे पीड़ित मैथुन, सेवन, रात्रिभोजन इत्यादिको निर्दोष कहा हो, भगवती सती को पाँच पति कहे हो, तीर्थंकर भगवानके दो माता, दो, पिता कहे हों, वे शास्त्र यथार्थ नही, इसलिये सत्यासत्य की परीक्षा कर असत्य की मान्यता छोड़ना ।
५. संघके अवर्णवादकां स्वरूप
प्रथम निश्चय सम्यग्दर्शनरूप धर्म प्रगट करना चाहिये ऐसा नियम है,,
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