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अध्याय;१ सूत्र.२ स्वभाव है और मैं आत्मा हूँ तथा वर्णादिक पुद्गल के स्वभाव हैं और पुद्गल मुझसे भिन्न ( पृथक्-) पदार्थ है, तो उपरोक्त मात्र. 'भाव' का. श्रद्धान किंचित्मात्र कार्यकारी नहीं है। यह श्रद्धान-तो किया कि 'मैं:
आत्मा हूँ किन्तु आत्माका जैसा स्वरूप है वैसा श्रद्धान नही किया, तो 'भाव' के श्रद्धान के बिना आत्माका श्रद्धान यथार्थ नही होता; इसलिये'तत्त्व' और उसके 'अर्थ' का श्रद्धान होना ही कार्यकारी है।
(४) दूसरा अर्थ-जीवादिको जैसे 'तत्त्व' कहा जाता है वैसे ही 'अर्थ' भी कहा जाता है। जो तत्त्व है वही अर्थ है, और उसका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जो पदार्थ जैसा अवस्थित है उसका उसी प्रकार होना सो तत्त्व है, और 'अर्थते' कहने पर निश्चय किया जाय सो अर्थ है । इसलिये तत्त्वस्वरूपका निश्चय तत्त्वार्थ है, और तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
(५) विपरीत अभिनिवेश ( उल्टे अभिप्राय ) से रहित जीवादिका तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शनका लक्षण है। सम्यग्दर्शनमें विपरीत मान्यता नहीं होती, यह बतलानेके लिये 'दर्शन' से पूर्व 'सम्यक् पद दिया गया है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, यह सात तत्त्व हैं, ऐसा चौथे सूत्र में कहेंगे।
(६) "तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" यह लक्षण निश्चय सम्यग्दर्शनका है, और वह तिथंच आदि से लेकर केवली तथा सिद्ध भगवानके समानरूपमें व्याप्त है। और वह लक्षण अव्याप्ति-अतिव्याप्ति और असंभव दोष रहित है। (देखो मोक्षमार्गप्रकाशक अ. ९ तथा इस शास्त्रका अ० १ परिशिष्ट ४)
(७) 'तत्त्व' शब्द का मर्म
'तत्व' शब्दका अर्थ तत्-पन या उसरूपता है। प्रत्येक वस्तुके-तत्त्वके स्वरूपसे तत्पन है और पर रूपसे अतत्पन है । जीव वस्तु है, इसलिये उसके अपने स्वरूपसे तत्पन है और परके स्वरूपसे अतत्पन है। जीव चैतन्यस्वरूप होनेसे ज्ञाता है और अन्य सब वस्तुयें ज्ञेय हैं, इसलिए जीव