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मोक्षशास्त्र मान्यता और मिथ्याज्ञान होता है वहाँ चारित्र भी मिथ्या ही होता है। उस मिथ्या या खोटे चारित्र को "मिथ्याचारित्र" कहा जाता है। अनादिकालसे जीवों के 'मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र' अपने अपराध से चले आरहे है, इसलिये जीव अनादिकाल से दुःख भोग रहे हैं।
क्योंकि अपनी यह दशा जीव स्वयं करता है इसलिये वह स्वयं उसे दूर कर सकता है; और उसे दूर करने का उपाय 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र' ही है, दूसरा नही;-यही यहाँ कहा है। इससे सिद्ध होता है कि जीव सतत जो अन्य उपाय किया करता है वह सब मिथ्या है। जीव धर्म करना चाहता है, किन्तु उसे सच्चे उपाय का पता न होने से वह खोटे उपाय किये बिना नहीं रहता; अतः जीवों को यह महान् भूल दूर करने के लिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । उसके बिना कभी किसीके धर्मका प्रारंभ हो ही नहीं सकता।
निश्चय सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥
अर्थ-[तत्त्वार्थश्रद्धानं] तत्त्व ( वस्तु ) के स्वरूपसहित अर्थजीवादि पदार्थो की श्रद्धा करना सो [सम्यग्दर्शनम्] सम्यग्दर्शन है।
टीका (१) तत्त्वो की सच्ची (-निश्चय ) श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है । 'अर्थ' का अर्थ है द्रव्य-गुरग-पर्याय; और 'तत्त्व' का अर्थ है उसका भावस्वरूप। स्वरूप ( भाव ) सहित प्रयोजनभूत पदार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्गन है ।
(२) इस सूत्र में सम्यग्दर्शन को पहचाननेका लक्षण दिया है। गम्यग्दर्शन लक्ष्य और तत्त्वार्थश्रद्धा उसका लक्षण है।
(३) किसी जीव को यह प्रतीति तो हो कि-'यह ज्ञातृत्व है यह वेत वर्ग है' त्यादि, किन्तु ऐसा श्रद्धान न हो कि-दर्शन-ज्ञान आत्माका