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मोक्षशास्त्र
दूसरे सभी पदार्थोसे सर्वथा भिन्न है । जीव अपनेसे तत् है, इसलिये उसे अपना ज्ञान स्वतः होता है; और जीव परसे अतत् है, इसलिये उसे परसे ज्ञान नही हो सकता । ' घड़ेका ज्ञान घड़े के आधारसे होता है' ऐसा कई लोग मानते हैं, किन्तु यह उनकी भूल है । ज्ञान जीवका स्वरूप है इसलिये वह ज्ञान अपनेसे तत् है और परसे प्रतत् है । जीवके प्रतिसमय अपनी योग्यता के अनुसार ज्ञानकी अवस्था होती है; परज्ञेयसंबंधी अपना ज्ञान होते समय परज्ञेय उपस्थित होता है, किंतु जो यह मानता है कि उस परवस्तुसे जीवको ज्ञान होता है तो मानो कि वह जीवको 'तत्त्व' नही मानता । यदि घडे से घड़ा सबंधी ज्ञान होता हो तो नासमझ (अबोध) जीवको भी घड़ेकी उपस्थिति होने पर घड़ेका ज्ञान होजाना चाहिये, किंनु ऐसा नहीं होता । इसलिये यह सुनिश्चित है कि ज्ञान स्वतः होता है । यदि जीवको परसे ज्ञान होने लगे तो जीव और पर एकतत्त्व हो जायें, किन्तु ऐसा नहीं होता ।
( ८ ) सम्यग्दर्शनकी महिमा
यदि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग मिथ्यादर्शनयुक्त हैं, तो गुरण होने के स्थान पर संसारमे दीर्घकाल तक परिभ्रमणकारी. दोषोंको उत्पन्न करते हैं । जैसे विषयुक्त औषधिसे लाभ नहीं होता उसीप्रकार मिथ्यात्त्वसहित अहिंसादिसे जीवका संसार- रोग नहीं मिटता । जहाँ मिथ्यात्त्व होता है वहाँ निश्चयतः श्रहिंसादि कदापि नही होते । "आत्मभ्रांति सम रोग नहिं" इस पदको विशेष ध्यानमे रखना चाहिये । जीवके साथ अनादिकालसे मिथ्यात्व - दशा चली आरही है इसलिये उसके सम्यग्दर्शन नही है, इसलिये आचार्यदेव पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न - करनेके लिये बारम्बार उपदेश करते हैं ।
सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान, चारित्र और तपमें सम्यक्ता नही आती; सम्यग्दर्शन ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका आधार है । जैसे आँखों से मुखकी सुन्दरता - शोभा होती है, वैसे ही सम्यग्दर्शनसे ज्ञानादिकमें सम्यक्त्व सुन्दरता - शोभा आती है ।