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व्रत, सामायिक प्रतिक्रमण, तप, प्रत्याख्यानादि क्रियाएँ नही होती क्योंकि वे क्रियाएँ पाँचवे गुणस्थानमें शुभभावरूपसे होती है ।
(३) शुभभाव ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको होता है, किन्तु अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि उससे धर्म होगा, अथवा वह शुभभावरूप व्यवहार करते-करते भविष्यमे धर्म होगा; किन्तु ज्ञानियोको वो हेय बुद्धिसे होने से, उससे (- शुभभावसे धर्म होगा ) ऐसा वे कभी नही मानते ।
(४) पूर्ण वीतरागदशा प्रगट न हो वहाँ तक पद अनुसार शुभभाव ये विना नही रहते किन्तु उस भावको धर्म नही मानना चाहिए और न ऐसा मानना चाहिये कि उससे क्रमशः धर्म होगा; क्योकि वह विकार होनेसे अनन्त वीतराग देवोने उसे बन्धनका ही कारण कहा है ।
(५) प्रत्येक वस्तु द्रव्य-गुरण - पर्यायसे स्वतन्त्र है; एक वस्तु दूसरी वस्तुका कुछ कर नही सकती; परिणमित नही कर सकती, प्रेरणा नही दे सकती, प्रभाव - असर - मदद या उपकार नही कर सकती; लाभ-हानि नही कर सकती, मार - जिला नही सकती, सुख-दुख नही दे सकती - ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुरण-पर्यायकी स्वतंत्रता अनन्त ज्ञानियोने पुकार पुकार कर कही है ।
(६) जिनमतमें तो ऐसी परिपाटी है कि पहले निश्चय सम्यक्त्व होता है और फिर व्रत; और निश्चय सम्यक्त्व तो विपरीत अभिप्राय रहित जीवादि तत्त्वार्थ श्रद्धान है, इसलिये ऐसा यथार्थ श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि होना चाहिये ।
(७) प्रथम गुरणस्थानमे जिज्ञासु जीवोंको ज्ञानी पुरुषोके धर्मोपदेशका श्रवण, उनका निरन्तर समागम, सत्शाखका अभ्यास, पठनमनन, देवदर्शन, पूजा, भक्ति, दानादि शुभभाव होते हैं, किन्तु पहले गुणस्थानमे सच्चे व्रत -तपादि नही होते ।
(२८) अन्तमें
मोक्षशास्त्रके गुजराती टीका परसे हिन्दी अनुवाद करनेका कार्य