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उपादेय है और न केवल व्यवहार किन्तु दोनों ही उपादेय हैं किन्तु पंडितजीने इसे मिध्यादृष्टियोंकी प्रवृत्ति बतलाई है ।"
आगे पृष्ठ ३० मे उद्धरण दिया है कि 'जो ऐसा मानता है कि निश्चयका श्रद्धान करना चाहिये और प्रवृत्ति व्यवहारकी रखना चाहिये' उन्हें भी मिथ्यादृष्टि ही बतलाते हैं ।
२५ - इस शास्त्रकी इस टीकाके आधारभूतशास्त्र
इस टीकाका संग्रह - मुख्यतया श्री सर्वार्थसिद्धि, श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिक, श्री श्लोकवार्तिक, श्री अर्थ प्रकाशिका, श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पचास्तिकाय, श्री नियमसार, श्री धवला - जयघवला - महाबन्ध तथा श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक इत्यादि अनेक सत् शास्त्रोके आधार पर किया गया है, जिसकी सूची भी इस ग्रन्थमे शुरूमे दी गई है ।
२६ - अध्यात्म योगी सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीकी कृपाका फल
मोक्षमार्गका सत्य पुरुषार्थं दर्शानेवाले, परम सत्य जैनधर्मके मर्म के पारगामी और अद्वितीय उपदेशक, आत्मज्ञ, सत्पुरुष श्री कानजी स्वामीसे मैंने इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि पढ़ लेनेकी प्रार्थना की और उन्होने उसे स्वीकारने की कृपा की । फलस्वरूप उनकी सूचनानुसार सुधार करके मुद्रण के लिये भेजा गया । इसप्रकार यह ग्रंथ उनकी कृपाका फल हैऐसा कहनेकी आज्ञा लेता हूँ । इस कृपाके लिये उनका जितना उपकार व्यक्त करें उतना कम ही है ।
२७ - मुमुक्षु पाठकों से......
मुमुक्षुत्रोको इस ग्रथका सूक्ष्म दृष्टिसे और मध्यस्थरूपसे अध्ययन करना चाहिए। सत् शास्त्रका धर्म बुद्धि द्वारा अभ्यास करना सम्यग्दर्शनका चारण है । तदुपरान्त, शास्त्राभ्यासमे निम्न बाते मुख्यतया ध्यानमे रखना चाहिए
(१) निश्वयनय सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है ।
(२) निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट किये बिना किसी भी जीवको सच्चे