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अध्याय ६ सूत्र १२
५१३ चारित्र और दूसरा सराग चारित्र; और चारित्र बन्धका कारण नहीं है तो फिर यहाँ सराग संयमको आस्रव और बन्धका कारण क्यों कहा है ?
उत्तर-जहां सराग संयमको बन्धका कारण कहा वहाँ ऐसा समझना कि वास्तवमें चारित्र ( संयम ) बन्धका कारण नहीं, किन्तु जो राग है वह बन्धका कारण है । जैसे-चावल दो तरहके है-एक तो भूसे सहित और दूसरा भूसे रहित; वहाँ भूसा चावलका स्वरूप नही है किन्तु चावलमें वह दोष है। अव यदि कोई सयाना पुरुष भूसे सहित चावलका सग्रह करता हो उसे देखकर कोई भोला मनुष्य भूसेको ही चावल मानकर उसका संग्रह करे तो वह निरर्थक खेदखिन्न ही होगा। वैसे ही चारित्र (सयम ) दो भेदरूप है-एक सराग तथा दूसरा वीतराग । यहाँ ऐसा समझना कि जो राग है . वह चारित्रका स्वरूप नही किन्तु चारित्रमें वह दोष है। अव यदि कोई सम्यग्ज्ञानी पुरुष प्रशस्त राग सहित चारित्रको धारण करे तो उसे देखकर कोई प्रज्ञानी प्रशस्त रागको ही चारित्र मानकर उसे धारण करे तो वह निरर्थक, खेदखिन्न ही होगा। । "( देखो सस्ती ग्रंथमालाका मोक्षमार्ग प्रकाशक अ०७ पृष्ठ ३६०
- तथा पाटनी ग्रन्थमाला श्री समयसार पृष्ठ ५५८ ) मुनिको चारित्रभाव मिश्ररूप है। कुछ तो वीतराग हुआ है और कुछ सराग है; वहाँ जिस अंशसे वीतराग हुआ है उसके द्वारा तो सवर है और जिस अंशसे सराग रहा है उसके द्वारा बन्ध है । सो एक भावसे तो दो कार्य वने किन्तु एक प्रशस्त राग ही से पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी मानना वह भ्रम है। अपने मिश्र भावमें ऐसी पहिचान सम्यग्दृष्टिके ही होती है कि 'यह सरागता है और यह वीतरागता है।' इसीलिये वे अवशिष्ट सराग भावको हेयरूप श्रद्धान करते हैं। मिथ्याष्टिके ऐसी परीक्षा न होनेसे सराग भावमे संवरका भ्रम द्वारा प्रशस्त-रागरूप कार्यको उपादेय मानता है। ( देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३३४-३३५ )
• इसतरह सरागसंयममे जो महाव्रतादि पालन करनेका शुभभाव है वह आस्रव होनेसे बन्धका कारण है किन्तु जितना निर्मल चारित्र प्रगट हुआ है वह बन्धका कारण नहीं है।