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मोक्षशास्त्र यह भी ध्यान रहे कि व्यवहार दशाके समय राग है इसलिये वह दूर करने योग्य है, वह लाभदायक नहीं है। स्वाश्रित एकतारूप निश्चयदशा ही लाभदायक है ऐसा यदि पहलेसे ही लक्ष्य हो तो ही उसके व्यवहारदशा होती है। यदि पहलेसे ही ऐसी मान्यता न हो और उस राग दशा को ही धर्म या धर्मका कारण माने तो उसे कभी धर्म नहीं होता और उसके वह व्यवहारदशा भी नहीं कहलाती; वास्तवमें वह व्यवहाराभास है-ऐसा समझना। इसलिये रागरूप व्यवहारदशाको टालकर निश्चयदशा प्रगट करनेका लक्ष्य पहले से ही होना चाहिये।
_ ऐसी दशा हो जाने पर जब साधु स्वसन्मुखताके बलसे स्वरूप की तरफ झुकता है तब स्वयमेव सम्यग्दर्शनमय-सम्यक्ज्ञानमय तथा सम्यकचारित्रमय हो जाता है । इसीलिये वह स्व से अभेदरूपरत्नत्रयकी दशा है और वह यथार्थ वीतरागदशा होनेके कारण निश्चयरत्नत्रयरूप कही जाती है।
इस अभेद और भेदका तात्पर्य समझ जाने पर यह बात माननी पड़ेगी कि जो व्यवहाररत्नत्रय है वह यथार्थ रत्नत्रय नही है। इसीलिये उसे हेय कहा जाता है । यदि साधु उसी में ही लगा रहे तो उसका तो व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग है, निरुपयोगी है। यों कहना चाहिये कि उन साधुओं ने उसे हेयरूप न जानकर यथार्थरूप समझ रखा है। जो जिसे यथार्थरूप जानता और मानता है वह उसे कदापि नहीं छोड़ता; इसीलिये उस साधुका व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग है अथवा वह अज्ञानरूप संसारका कारण है।
पुनश्च उसीप्रकार जो व्यवहार को हेय समझकर अशुभभावमें रहता है और निश्चयका अवलंबन नही करता वह उभयभ्रष्ट (शुद्ध और शुभ दोनोंसे भ्रष्ट ) है । निश्चयनयका अवलंबन प्रगट नहीं हुआ .और. जो व्यवहारको तो हेय मानकर अशुभमें रहा करते हैं वे निश्चय के लक्ष्य से शुभ मे भी नहीं जाते तो फिर वे निश्चय तक नहीं पहुँच सकते-यह निर्विवाद है।