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परिशिष्ट १
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इस श्लोक में अभेद रत्नत्रयका स्वरूप कृदंत शब्दों द्वारा शब्दोंका अभेदस्व बताकर कर्तृ भावसाधन सिद्ध किया । अब आगे के श्लोकोंमें क्रिया पदों द्वारा कर्ताकर्मभाव आदि में सर्व विभक्तियोंके रूप दिखाकर अभेदसिद्ध करते हैं ।
निश्चयरत्नत्रय की कर्ता के साथ अभेदता पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥ ८ ॥
अर्थ – जो निज स्वरूपको देखता है, निजस्वरूपको जानता है और निजस्वरूपके अनुसार प्रवृत्ति करता है वह आत्मा ही है, अतएव दर्शन - ज्ञान - चारित्र इन तीनोंरूप आत्मा ही है ।
कर्मरूपके साथ अभेदता
पश्यति स्वस्वरूपं यं जानाति चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ९ ॥
अर्थ – जिस निज स्वरूपको देखा जाता है, जाना जाता है और धारण किया जाता है वह दर्शन-ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है, परन्तु तन्मय आत्मा ही है इसीलिये आत्मा ही अभेदरूपसे रत्नत्रयरूप है ।
कारणरूपके साथ अमेदता
दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च ।
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ १० ॥
अर्थ — जो निज स्वरूप द्वारा देखा जाता है, निजस्वरूप द्वारा जाना जाता है और निज स्वरूप द्वारा स्थिरता होती है वह दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय है, वह कोई प्रथक् पदार्थ नही है किंतु तन्मय आत्मा ही है इसीलिये आत्मा ही अभेदरूपसे रत्नत्रयरूप है । संप्रदानरूप के साथ अभेदता
यस्मै पश्यति जानाति स्वरूपाय चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ॥ ११ ॥