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मोक्षशास्त्र कल्पसंज्ञा कहाँ तक है ? प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः॥२३॥ अर्थ-वेयकोंसे पहिलेके सोलह स्वर्गोको कल्प कहते है। उनसे आगेके विमान कल्पातीत है।
टीका सोलह स्वर्गोके बाद नवग्रैवेयक इत्यादिके देव एक समान वैभवके धारी होते है इसलिये उन्हें अहमिन्द्र कहते है, वहाँ इन्द्र इत्यादि भेद नहीं है, सभी समान हैं ॥ २३ ॥
लौकान्तिक देव ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥ २४ ॥
अर्थ-जिनका निवास स्थान पाँचवे स्वर्ग ( ब्रह्मलोक ) है उन्हें लौकान्तिक देव कहते है।
टीका ये देव ब्रह्मलोकके अंतमें रहते है तथा एक भवावतारी ( एकावतारी ) है तथा लोकका अंत ( संसारका नाश ) करनेवाले है इसलिये उन्हे लोकान्तिक कहते है। वे द्वादशांगके पाठी होते है, चौदह पूर्वके धारक होते है, ब्रह्मचारी रहते है और तीर्थंकर प्रभुके मात्र तप कल्याणक में आते है । वे देवर्षि भी कहे जाते हैं ॥ २४ ॥
* लौकान्तिक देवोंके नाम सारस्वतादित्यवयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधा
रिष्टाश्च ॥ २५॥ अर्थ-लौकान्तिक देवोंके आठ भेद है:-१-सारस्वत, २-प्रादित्य, ३-वह्नि, ४-अरुण, ५-गर्दतोय, ६-तुषित, ७-अव्याबाध, और ८अरिष्ट ये देव ब्रह्मलोककी ईशान इत्यादि आठ दिशाओंमें रहते हैं।