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अध्याय ६ सूत्र ५
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(८) अधिकरणिकीक्रिया — हिंसाके साधनभूत बन्दूक, छुरी इत्यादि लेना, देना, रखना सो सब अधिकरणिकी क्रिया है ।
(९) परिताप क्रिया — दूसरेको दुःख देनेमें लगना ।
(१०) प्राणातिपात क्रिया — दूसरे के शरीर, इन्द्रिय या श्वासोच्छ्वासको नष्ट करना सो प्राणातिपात क्रिया है ।
नोट: - यह व्यवहार- कथन है, इसका श्रर्थं ऐसा समझना कि जीव जब निजमें इस प्रकारके अशुभ भाव करता है, तब इस क्रियामे बताई गई पर वस्तुयें स्वय बाह्य निमित्तरूपसे होती हैं । ऐसा नही मानना कि जीव परपदार्थोका कुछ कर सकता है या परपदार्थ जीवका कुछ कर सकते हैं । अव ११ से १५ तककी ५ क्रियायें कहते हैं । इनका सम्बन्ध इन्द्रियोंके भोगोंके साथ है
(११) दर्शन क्रिया - सौदर्य देखनेकी इच्छा है सो दर्शनक्रिया है । (१२) स्पर्शन क्रिया — किसी चीजके स्पर्श करनेकी जो इच्छा है सो स्पर्शन क्रिया है ( इसमे अन्य इन्द्रियो सम्बन्धी वांछाका समावेश समझना चाहिये )।
(१३) प्रात्ययिकी क्रिया - इन्द्रिय के भोगोंकी वृद्धिके लिये नवीन नवीन सामग्री एकत्रित करना या उत्पन्न करना सो प्रात्ययिकी क्रिया है । (१४) समंतानुपात क्रिया - स्त्री, पुरुष तथा पशुओोके उठने बैठने स्थानको मलमूत्र से खराब करना सो समंतानुपात क्रिया है ।
(१५) अनाभोग क्रिया - बिना देखी या बिना शोधी जमीन पर बैठना, उठना, सोना या कुछ धरना उठाना सो श्रनाभोग क्रिया है । अब १६ से २० तककी पाँच क्रियायें कहते हैं, ये उच्च धर्माचरणमें धक्का पहुँचानेवाली हैं
(१६) स्वहस्त क्रिया — जो काम दूसरेके योग्य हो उसे स्वयं करना सो स्वहस्त क्रिया है ।