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मोक्षशास्त्र
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आत्माकी उस २ अवस्थाकी योग्यता है और निमित्त पुराने कर्मोंका
उदय है ।
३ – पच्चीस प्रकारकी क्रियाओं के नाम और उनके अर्थ
(१) सम्यक्त्व क्रिया — चैत्य; गुरु और प्रवचन ( - शास्त्र ) को पूजा इत्यादि कार्योंसे सम्यक्त्वकी वृद्धि होती है, इसीलिये यह सम्यक्त्व क्रिया है । यहाँ मन, वचन, कायकी जो क्रिया होती है वह सम्यक्त्वी जीवके शुभभाव में निमित्त है; वे शुभभावको धर्म नही मानते, इसीलिये इस मान्यताकी दृढ़ताके द्वारा उसके सम्यक्त्वकी वृद्धि होती है; इसलिये यह मान्यता आसूव नहीं, किन्तु जो सकषाय ( शुभभाव सहित ) योग है सो भाव-आसूव है; वह सकषाय योग द्रव्यकर्मके आसूत्रमे मात्र निमित्त कारण है ।
(२) मिध्यात्वक्रिया — कुदेव, कुगुरु श्रीर कुशास्त्रके पूजा स्तवनादिरूप मिथ्यात्वकी कारणवाली क्रियायें है सो मिथ्यात्वक्रिया है । (३) प्रयोगक्रिया - हाथ, पैर इत्यादि चलानेके भावरूप इच्छारूप जो क्रिया है सो प्रयोगक्रिया है ।
(४) समादान क्रिया - संयमीका असंयमके सन्मुख होना ।
(५) ईर्यापथ क्रिया- - समादान क्रियासे विपरीत क्रिया अर्थात् संयम बढाने के लिये साधु जो क्रिया करता है वह ईर्यापथ क्रिया है । ईर्यापथ पाँच समितिरूप है, उसमें जो शुभ भाव है सो ईर्यापथ क्रिया है [ समितिका स्वरूप 8 वें अध्यायके ५ वे सूत्रमें कहा जायगा । ] इसमें पर हिंसा के भावकी
अब पाँच क्रियायें कही जाती हैं, मुख्यता है
(६) प्रादोषिक क्रिया —— क्रोध के आवेशसे द्वेषादिकरूप बुद्धि करना सो प्रादोषिक क्रिया है ।
(७) कायिकी क्रिया —— उपर्युक्त दोष उत्पन्न होने पर हाथसे मारना, मुखसे गाली देना, इत्यादि प्रवृत्तिका जो भाव है सो कायिकी क्रिया है ।