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अध्याय ६ सूत्र ५. '४६६
साम्परायिक आस्रवके ३९ भेद इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशति
संख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५॥ अर्थ:-[इन्द्रियाणि पच] स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, [कषाया:चतुः] क्रोधादि चार कषाय, [ अवतानि पंच ] हिंसा इत्यादि पाँच अव्रत और [ क्रियाः पंचविंशतिः ] सम्यक्त्व आदि पच्चीस प्रकारकी क्रियायें [संख्याभेदाः ] इस तरह कुल ३६ भेद [ पूर्वस्य ] पहले (साम्परायिक) आसूवके हैं, अर्थात् इन सर्व भेदोंके द्वारा साम्परायिक आसूव होता है।
टीका १-इन्द्रिय-दूसरे अध्यायके १५ से १६ वें सूत्रमे इन्द्रियका विषय आ चुका है। पुद्गल-इन्द्रियाँ परद्रव्य है, उससे आत्माको लाभ या हानि नहीं होती, मात्र भावेन्द्रियके उपयोगमे वह निमित्त होता है । इन्द्रिय का अर्थ होता है भावेन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और इद्रियका विषय; ये तीनो ज्ञेय है; ज्ञायक आत्माके साथ उनके जो एकत्वकी मान्यता है सो (मिथ्यात्वभाव ) ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष है। (देखो श्री समयसार गाथा ३१ टीका)
कषाय-रागद्वेषरूप जो आत्माकी प्रवृत्ति है सो कषाय है। यह प्रवृत्ति तन और मदके भेदसे दो प्रकारकी होती है ।
__ अव्रत-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये पांच प्रकारके अव्रत है।
२-क्रिया-आत्माके प्रदेशोका परिस्पन्दरूप जो योग है सो क्रिया है; इसमे मन, वचन और काय निमित्त होता है। यह क्रिया सकषाय योगमे दशवे गुणस्थान तक होती है। पौद्गलिक मन, वचन या कायकी कोई भी क्रिया आत्माकी नही है, और न आत्माको लाभकारक या हानिकारक है। जब आत्मा सकषाय योगरूपसे परिणमे और नवीन कर्मोका आसव हो तब प्रात्माका सकषाययोग उस पुद्गल-मासूवमे निमित्त है और पुदूल स्वयं उस आसूवका उपादान कारण है; भावासूवका उपादान कारण