________________
मध्याय २ सूत्र १
२२५
तब दर्शनमोहका उपशम स्वयमेव हो जाता है; कर्मके उपशममें जीवका कोई भी कर्तव्य नही है ।
८. पाँच भावोंके संबंध में विशेष स्पष्टीकरण
कुछ लोग आत्माको सर्वथा ( एकान्त) चैतन्यमात्र मानते हैं अर्थात् सर्वथा शुद्ध ' मानते है, वर्तमान अवस्था में अशुद्धताके होनेपर भी उसे स्वीकार नही करते । श्रौर कोई आत्माका स्वरूप सर्वथा आनंदमात्र मानते हैं, वर्तमान अवस्थामें दुःख होने पर भी उसे स्वीकार नही करते । यह सूत्र सिद्ध करता है कि उनकी वे मान्यताएँ और उन जैसी दूसरी मान्यताएँ ठीक नही हैं । यदि आत्मा सर्वथा शुद्ध ही हो तो संसार, बघ, मोक्ष और मोक्षका उपाय इत्यादि सब मिथ्या हो जायेगे । आत्माका त्रैकालिक स्वरूप और वर्तमान अवस्थाका स्वरूप ( अर्थात् द्रव्य और पर्यायसे आत्माका स्वरूप ) कैसा होता है सो यथार्थतया यह पाँच भाव बतलाते है । यदि इन पाँच भावोमेसे एक भी भावका अस्तित्त्व स्वीकार न किया जाय तो आत्मा के शुद्ध - अशुद्ध स्वरूपका सत्य कथन नही होता, और उससे ज्ञानमें दोष आता है । यह सूत्र ज्ञानका दोष दूर करके, आत्माके त्रैकालिक स्वरूप और निगोदसे सिद्धतककी उसकी समस्त अवस्थाओंको अत्यल्प शब्दोंमें चमत्कारिक रीति बतलाता है । उन पांच भावोमे चौदह गुणस्थान तथा सिद्ध दशा भी आ जाती है ।
इस शास्त्र में अनादिकालसे चला श्रानेवाला- प्रदयिकभाव प्रथम नही लिया है किन्तु श्रोपशमिकभाव पहिले लिया गया है; यह ऐसा सूचित करता है कि इस शास्त्रमे स्वरूपको समझानेके लिये भेद बतलाये गये हैं तथापि भेदके श्राश्रयसे अर्थात् श्रोदयिक, श्रोपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिकभावोके श्राश्रयसे विकल्प चालू रहता है अर्थात् अनादिकालसे चला आनेवाला श्रदयिकभाव ही चालू रहता है, इसलिये उन भावोंको ओरका आश्रय छोड़कर ध्रुवरूप पारिणामिकभावकी ओर लक्ष करके एकाग्र होना चाहिए । ऐसा करने पर पहिले श्रोपशमिकभाव प्रगट होता है, और क्रमशः शुद्धताके बढ़ने पर क्षायिकभाव प्रगट होता है ।
२६