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अध्याय ३ सूत्र ३७-३८ एक मेरुसम्बन्धी हिमवत्, हरिक्षेत्र, रम्यक्, हिरण्यवत, देवकुरु और उत्तरकुरु ऐसी छह भोगभूमियाँ हैं। इसप्रकार पाँच मेरु सम्बन्धी तीस भोगभूमियाँ हैं। उनमेसे दश जघन्य, दश मध्यम, और दश उत्कृष्ट हैं। उनमें दश प्रकारके कल्पवृक्ष है। उनके भोग भोगकर जीव संक्लेश रहित-सातारूप रहते हैं।
२. प्रश्न, कर्मके आश्रय तो तीनलोकका क्षेत्र है तो कर्मभूमिके एकसौ सत्तर क्षेत्र ही क्यों कहते हो, तीनलोकको कर्मभूमि क्यों नहीं कहते?
उचर-सर्वार्थसिद्धि पहुँचनेका शुभकर्म और सातवे नरक पहुँचने का पापकर्म इन क्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य उपार्जन करते हैं। असि, मसि, कृषि प्रादि छहकर्म भी इन क्षेत्रोंमें ही होते है, तथा देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह प्रकार के शुभ (प्रशस्त ) कर्म भी इन क्षेत्रोंमे ही उत्पन्न हुए मनुष्य करते हैं। इसीलिये इन क्षेत्रोंको ही कर्मभूमि कहते हैं ।। ३७॥
मनुष्यों की उत्कृष्ट तथा जघन्य आयु नस्थिती पराऽवरे त्रिपल्योपमान्तमुहूर्ते ॥३८॥
अर्थ-मनुष्योंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है।
टीका यह ध्यान रखना चाहिये कि मनुष्यभव एक प्रकारको सगति है, दो इंद्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक त्रसगति है। उसका एक साथ उत्कृष्टकाल दो हजार सागरोपमसे कुछ अधिक है। उसमें संज्ञी पर्याप्तक मनुष्यत्वका काल तो बहुत ही थोड़ा है । मनुष्यभवमे जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करके धर्मका प्रारंभ न करे तो मनुष्यत्व मिटने के बाद कदाचित् त्रसमें ही रहे तो भी नारकी-देव-तिर्यंच और बहुत थोड़े मनुष्यभव करके