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अध्याय ६ सूत्र ८
५०५ लगानेसे २७ भेद हुये और इन प्रत्येकमें क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार भेद लगानेसे १०८ भेद होते है। ये सब भेद जीवाधिकरण आस्रवके हैं।
सूत्रमे च शब्द अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायके चार भेद बतलाता है।
अनन्तानुबन्धी कषाय~-जिस कषायसे जीव अपने स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट न कर सके उसे अनन्तानुबन्धो कषाय कहते हैं अर्थात् जो प्रात्माके स्वरूपाचरण चारित्रको घाते उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं।
अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यात्वको अनन्त कहा जाता है; उसके साथ जिस कषायका बध होता है उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं।
अप्रत्याख्यान कषाय-जिस कषायसे जीव एकदेशरूप संयम (-सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत ) किंचित् मात्र भी प्राप्त न कर सके उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते है।
प्रत्याख्यान कषाय-जीव जिस कषायसे सम्यग्दर्शन पूर्वक सकल संयमको ग्रहण न कर सके उसे प्रत्याख्यान कषाय कहते है।
संज्वलन कषाय-जिस कषायसे जीवका संयम तो बना रहे परन्तु शुद्ध स्वभावमे-शुद्धोपयोगमे पूर्णरूपसे लीन न हो सके उसे सज्वलन कषाय कहते हैं।
संरंभ-विसी भी विकारी कार्यके करनेके संकल्प करनेको संरंभ कहा जाता है । ( संकल्प दो तरहका है १-मिथ्यात्वरूप संकल्प, २-अस्थिरतारूप संकल्प )
समारम्भ-उस निर्णयके अनुसार साधन मिलानेके भावको समारम्भ कहा जाता है।
आरम्भ-उस कार्यके प्रारम्भ करनेको प्रारम्भ कहा जाता है । कृत-स्वय करनेके भावको कृत कहते हैं। कारित-दूसरेसे करानेके भावको कारित कहते हैं। अनुमत-जो दूसरे करें उसे भला समझना सो अनुमत है ।।।। ६४