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अध्याय ७ सूत्र १८
५८५ (४) अठारहवें सूत्रका सिद्धान्त (१) अज्ञान अंधकारसे आच्छादित हुये जो जीव आत्माको (परका) कर्ता मानते हैं वे यद्यपि मोक्षके इच्छुक हो तो भी लौकिक जनोंकी तरह उनको भी मोक्ष नहीं होता; ऐसे जीव चाहे मुनि हुये हों तथापि वे लौकिक जनकी तरह ही हैं । लोक ( संसार ) ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोने आत्माको परद्रव्यका कर्ता (पर्यायाश्रित क्रियाका-शरीरका और उसकी क्रियाका कर्ता ) माना, इसप्रकार दोनोंको मान्यता समान हुई। तत्त्वको जाननेवाला पुरुष ऐसा जानता है कि 'सर्वलोकके कोई भी परद्रव्य मेरे नहीं है' और यह भी सुनिश्चितरूपसे जानते हैं कि लोक और श्रमण (द्रयलिंगी मुनि) इन दोनोंके जो इस परद्रव्यमे कर्तृत्वका व्यवसाय है वह उनके सम्यग्दर्शनज्ञान रहितपनेके कारण ही है। जो परद्रव्यका कर्तृत्व मानता है वह चाहे लौकिकजन हो या मुनिजन-मिथ्यादृष्टि ही है।
(देखो श्री समयसार गा० ३२१ से ३२७ मे टीका ) (२) प्रश्न-क्या सम्यग्दृष्टि भी परद्रव्योंको बुरा जानकर त्याग करता है?
उत्तर-सम्यग्दृष्टि परद्रव्योको बुरा नहीं जानता; वे ऐसा जानते हैं कि परद्रव्यका अहण-त्याग हो ही नहीं सकता। वह अपने रागभावको बुरा जानता है इसीलिये सरागभावको छोड़ता है और उसके निमित्तरूप परद्रव्योंका भी सहजमें त्याग होता है । पदार्थका विचार करने पर जो कोई परद्रव्यका भला या बुरा है ही नही । मिथ्यात्वभाव ही सबसे बुरा है, सम्यग्दृष्टिने वह मिथ्याभाव तो पहले ही छोड़ा हुआ है।
(३) प्रश्न-जिसके व्रत हो उसे ही व्रती कहना चाहिये, उसके बदले ऐसा क्यों कहते हो कि 'जो निःशल्य हो वह व्रती होता है।'
उत्तर-शल्यका अभाव हुये बिना कोई जीव हिंसादिक पापभावोंके दूर होने मात्रसे व्रती नही हो सकता। शल्यका अभाव होनेपर व्रतके संबंधसे व्रतीत्व होता है इसीलिये सूत्र में निशल्य शब्दका प्रयोग किया है ॥१८॥