________________
५६४
मोक्षशास्त्र उचर-(१) संसारमें नरकांदिकके दुःख जानकर तथा स्वर्गादिकमें भी जन्म मरणादिके दुःख जानकर संसारसे उदास हो वह मोक्ष को चाहता है। अब इन दुःखोंको तो सभी दुःख जानते हैं। किन्तु इन्द्र अहमिन्द्रादिक विषयानुरागसे इन्द्रियजनित सुख भोगता है उसे भी दुःख जानकर निराकुल अवस्था की पहचान कर जो उसे मोक्ष जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।
(२) विषय सुखादिकका फल नरकादिक है। शरीर अशुचिमयऔर विनाशीक है, वह पोषण करने योग्य नहीं, तथा कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे है-इत्यादि परद्रव्योंका दोष विचार कर उसका त्याग करता है। पर द्रव्योंमें इष्ट अनिष्टरूप श्रद्धा करना-वह मिथ्यात्व है ।' ' ' '
( ३ ) व्रतादिक का फल स्वर्ग मोक्ष है । तपश्चरणादिक पवित्र फल देने वाले हैं, इनके द्वारा शरीर शोषण करने योग्य है तथा देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं-इत्यादि पर द्रव्योंके गुण विचार कर उसे अंगीकार करता है। परद्रव्यको हितकारी या अहितकारी मानना सो मिथ्यात्वसहित राग है।
(४) इत्यादि प्रकारसे कोई पर द्रव्योंको बुरा जानकर अनिष्टरूप. श्रद्धान करता है तथा कोई परद्रव्योंको भले जानकर इष्टरूप श्रद्धान करता है; पर द्रव्यमें इष्ट अनिष्टरूप-श्रद्धाव करना सो मिथ्यात्व है । पुनश्च इसीः श्रद्धानसे उसकी उदासीनता भी द्वेषरूप होती है क्योंकि किन्ही परद्रव्योंको बुरा जानना सो द्वेष है।
( मो० प्र.) (५) पुनश्च जैसे वह पहले शरीराश्रित पापकार्यो में कर्तुत्व मानता था उसी तरह अब शरीराश्रित पुण्य कार्योमें अपना कर्तृत्व मानता है। इसप्रकार पर्यायाश्रित ( शरीराश्रित ) कार्योमें अहंबुद्धि माननेकी समानता हुई । जैसे पहले-मैं जीवको मारता हूँ, परिग्रहधारी हूँ इत्यादि मान्यता थी, उसी तरह अव मैं जीवोकी रक्षा करता हूँ मैं परिग्रह रहित नग्न हूँ ऐसी मान्यता हुई सो 'शरीर आश्रित कार्यमें अहंबुद्धि है सो ही मिथ्यादृष्टि है।