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मोक्षशास्र
ऐसी सूक्ष्म मिथ्यामान्यता रह जाती है इसलिये यह मिथ्यादृष्टि बना रहता है ।
( ३ ) सच्चे देव - गुरु शास्त्रकी व्यवहार श्रद्धाके बिना उच्च शुभभाव भी नही हो सकते, इसलिये जिन जीवोको सच्चे देव गुरु शास्त्रका सयोग प्राप्त हो जाता है । फिर भी यदि वे उसका रागमिश्रित व्यवहारिक यथार्थं निर्णय नही करते तो गृहीतमिथ्यात्व बना रहता है; और जिसे कुगुरु-कुदेव- कुशास्त्रकी मान्यता होती है उसके भी गृहीतमिथ्यात्व होता ही है; श्रोर जहाँ गृहीतमिथ्यात्व होता है वहाँ अगृहीतमिथ्यात्व भी अवश्य होता है; इसलिए ऐसे जीवको सम्यग्दर्शनादि धर्म तो होता नही, प्रत्युत मिथ्यादृष्टि होने वाला उत्कृष्ट शुभभाव भी उसके नही होता, ऐसे जीवों के जैन धर्मको श्रद्धा व्यवहारसे भी नही मानी जा सकती ।
( ४ ) इसी कारण से अन्यधर्मको मान्यतावालोंके सच्चे धर्मका प्रारम्भ अर्थात् सम्यग्दर्शन तो होता ही नहीं है और मिथ्यादृष्टि योग्य उत्कृष्ट शुभभाव भी वे नही कर सकते, वे अधिक से अधिक बारहवे देवलोक की प्राप्तिके योग्य शुभभाव कर सकते है ।
( ५ ) बहुतसे अज्ञानी लोगोंकी यह मान्यता है कि 'देवगति में सुख है' किन्तु यह उनकी भूल है । बहुतसे देव तो मिथ्यात्वके कारण प्रतत्त्वश्रद्धानयुक्त ही है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोके अति मंद कषाय नही होती, उपयोग भी बहुत चंचल होता है तथा कुछ शक्ति है इसलिये कौतुहल तथा विषयादि कार्यों में ही लगे रहते है और इसलिये वे अपनी उस व्याकुलतासे दुःखी ही है । वहाँ माया -लोभ कषायके कारण होनेसे वैसे कार्योकी मुख्यता है । वहाँ विषयसामग्री की इच्छा करना, छल करना इत्यादि कार्य विशेष होते है किंतु वैमानिक देवोंमें ऊपर ऊपरके देवोके वे कार्य अल्प होते हैं । वहाँ हास्य और रति कषायके कारण होनेसे वैसे कार्योंकी मुख्यता होती है । इसप्रकार देवोको कषायभाव होता है और कषायभाव दुःख ही है । ऊपरके देवोके उत्कृष्ट पुण्यका उदय है और कषाय अति मंद है, तथापि उनके भी इच्छाका अभाव नहीं है इसलिये वास्तवमें वे दुःखी ही हैं ।