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अध्याय ४ सूत्र २१
३५६ ( ५ ) सौधर्मसे प्रारम्भ करके त्रेसठ शलाका पुरुष भी हो
नवनवेयक पर्यन्तके देवों सकते हैं।
मेसे कोई (६) अनुदिश और अनुत्तरसे तोशंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र आये हुये।
इत्यादिमें उत्पन्न हो सकते है
किंतु अर्धचक्री नहीं हो सकते । (७) भवनत्रिकसे
त्रेसठ शलाका पुरुषोंमें नही
उत्पन्न होते। (८) देव पर्यायसे
समस्त सूक्ष्मोंमें, तैजसकायोंमे, ( समुच्चयसे)
वातकायोमें उत्पन्न नहीं होते। तथा विकलत्रयोंमें, असंज्ञियों या लब्धिमपर्याप्तकोमें नही उत्पन्न होते और भोगभूमियोंमें, देवोमें तथा नारकियोंमें भी
उत्पन्न नहीं होते। ७. इस सूत्रका सिद्धांत (१) जब जीव मिथ्यादृष्टिके रूपमे उत्कृष्ट शुभभाव करता है तब नवमें अवेयक तक जाता है, परन्तु वे शुभभाव सम्यग्दर्शनके या धर्मके कारण नहीं है; मिथ्यात्वके कारण अनन्त संसारमे परिभ्रमण करता है इसलिये शुभ भावको धर्म था धर्मका कारण नही मानना चाहिये।
(२) मिथ्यादृष्टिको उत्कृष्ट शुभभाव होते हैं तब उसके गृहीतमिथ्यात्व छूट जाता है अर्थात् देव-गुरु-शास्त्रकी रागमिश्रित व्यवहार श्रद्धा तो ठीक होती है, उसके बिना उत्कृष्ट शुभभाव हो ही नहीं सकते। नवमें
वेयक जानेवाला मिथ्यादृष्टि जीव देव-गुरु शास्त्रके व्यवहारसे ( रागमिश्रित विचारसे ) सच्चा निर्णय करता है किन्तु निश्चयसे अर्थात् रागसे पर हो सच्चा निर्णय नहीं करता है तथा उसके 'शुभ भावसे धर्म होता है'