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मोक्षशास्त्र नहीं होता और सत् स्वरूपके ज्ञानके बिना भव बन्धनकी वेड़ी नहीं टूटती। भव बंधनका अंत आये बिना यह जीवन किस कामका ? भवके अन्तकी श्रद्धाके बिना कदाचित् पुण्य करे तो उसका फल राजपद या इन्द्रपद मिलता है कितु उसमे आत्माको क्या है ? आत्म प्रतीतिके बिना व्रत-तपकी प्रवृत्ति सब पुण्य और इन्द्रपद आदि व्यर्थ हैं, उसमें आत्मशान्तिका अन्श तक नहीं होता; इसलिये पहिले श्र तज्ञानके द्वारा ज्ञानस्वभावका दृढ निश्चय करना चाहिये फिर प्रतीतिमें भवकी शंका ही नहीं रहती, और जितनी ज्ञानकी दृढता होती है उतनी शान्ति बढ़ती जाती है ।
प्रभो ! तू कैसा है, तेरी प्रभुताकी महिमा कैसी है, यह तूने नहीं जान पाया । अपनी प्रभुता की प्रतीति किये बिना तू बाह्यमें चाहे जिसके गीत गाता फिरे तो इससे कही तुझे अपनी प्रभुताका लाभ नही हो सकता। अभी तक दूसरेके गीत गाये हैं किंतु अपने गीत नही गाये । तू भगवानकी प्रतिमाके सन्मुख खड़ा होकर कहता है कि-हे भगवान् ! हे नाथ ! आप अनंत ज्ञानके धनी हो, वहाँ सामनेसे भी ऐसी ही आवाज आती है-ऐसी ही प्रतिध्वनि होती है कि-'हे भगवान् ! हे नाथ ! आप अनन्त ज्ञानके धनी हैं'....यदि अन्तरंग पहिचान हो तभी तो उसे समझेगा ? बिना पहिचानके भीतरमें सच्ची प्रतिध्वनि (निःशंकतारूप) नहीं पड़ती।
शुद्धात्मस्वरूपका वेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र कहो, अनुभव कहो, या साक्षात्कार कहो, जो कहो सो यह एक आत्मा ही है। अधिक क्या कहें ? जो कुछ है सो यह एक आत्मा ही है, उसोको भिन्न २ नामोंसे कहा जाता है। केवलीपद, सिद्धपद या साधुपद यह सब एक आत्मा में ही समाविष्ट होते हैं । समाधिमरण, आराधना इत्यादि नाम भी स्वरूपकी स्थिरता ही है । इसप्रकार आत्मस्वरूपको समझ ही सम्यग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन ही सर्व धर्मोंका मूल है, सम्यग्दर्शन ही आत्माका धर्म है।