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प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[४] मोक्षशास्त्र अध्याय एक (१), सूत्र २ में 'तत्त्वार्थ श्रद्धान' को सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है; उस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोषका परिहार ।
अव्याप्ति दोषका परिहार (१) प्रश्न-तिर्यंचादि कितने ही तुच्छज्ञानी जीव सात तत्त्वोंके नाम तक नहीं जान सकते तथापि उनके भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति शास्त्रोंमें कही गई है, इसलिये आपने जो सम्यग्दर्शनका लक्षण तत्त्वार्थ श्रद्धान ( तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ) कहा है उसमें अव्याप्ति दोष आता है।
___ उत्तर-जीव-अजीवादिके नामादिको जाने या न जाने अथवा अन्यथा जाने, किन्तु उसके स्वरूपको यथार्थ जानकर श्रद्धान करने पर सम्यक्त्व होता है। उसमें कोई तो सामान्यतया स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है और कोई विशेषतया स्वरूपको पहिचानकर श्रद्धान करता है । तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीवादिके नाम भी नही जानते तथापि वे सामान्यरूपसे उसका स्वरूप पहिचानकर श्रद्धान करते है इसलिये उन्हें सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । जैसे कोई तियंच अपना या दूसरोंका नामादि तो नहीं जानता किन्तु अपने में ही अपनापन तथापि अन्यको पर मानता है, इसीप्रकार तुच्छज्ञानी जीव-अजीवके नाम न जाने फिर भी वह ज्ञानादिस्वरूप आत्मामे स्वत्व मानता है तथापि शरीरादिको पर मानता है, ऐसा श्रद्धान उसे होता है और यही जीव-अजीवका श्रद्धान है। और फिर जैसे वही तिर्यंच सुखादिके नामादितो नही जानतातथापि सुखावस्थाको पहिचानकर तदर्थ भावी दुःखोके कारणोको पहिचानकर उनका त्याग करना चाहता है तथा वर्तमानमे जो दुःखके कारण बने हुए हैं उनके