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मोक्षशास्त्र समझना अर्थात् प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध तो सब कर्मोंका हुआ करता है किंतु उस समय ज्ञानावरणादि खास कर्मका स्थिति और अनुभागवंध विशेष अधिक होता है ॥ १० ॥
असाता वेदनीयके आस्रवके कारण दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्म
परोभयस्थानान्यसद्व द्यस्य ॥११॥
अर्थ-[प्रात्मपरोभयस्थानानि ] अपनेमें, परमे और दोनोंके विषयमें स्थित [ दुःखशोकतापानंदनवघपरिदेवनानि ] दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध और परिदेव ये [ असदेद्यस्य ] असातावेदनीय कर्मके आसवके कारण हैं।
टीका १. दुःख-पीड़ारूप परिणाम विशेषको दुःख कहते है ।
शोक-अपनेको लाभदायक मालूम होनेवाले पदार्थका वियोग होने पर विकलता होना सो शोक है।
ताप—ससारमें अपनी निंदा आदि होने पर पश्चाताप होना । आक्रंदन-पश्चात्तापसे अश्रुपात करके रोना सो आक्रंदन है । वध-प्राणोंके वियोग करने को वध कहते हैं ।
परिदेव-संक्लेश परिणामोके कारणसे ऐसा रुदन करना कि जिससे सुननेवालेके हृदयमें दया उत्पन्न हो जाय सो परिदेवन है।
यद्यपि शोक ताप आदि दुःखके ही भेद हैं तथापि दुःखकी जातियाँ बतानेके लिये ये दो भेद बताये हैं।
२-स्वयंको, परको या दोनोंको एक साथ दुःख शोकादि उत्पन्न करना सो असातावेदनीय कर्मके पासूवका कारण होता है।
प्रश्न-यदि दुःखादिक निजमें, परमें, या दोनोंमें स्थित होने से असातावेदनीय कर्मके आसूवका कारण होता है तो अर्हन्त मतके मानने