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मोक्षशास्त्र
जैसे वैद्यकीय ज्ञान प्राप्त करना हो तो वैद्यकके ज्ञानी गुरुकी शिक्षासे वह प्राप्त किया जा सकता है, वैद्यकके अज्ञानी पुरुषसे नही, उसी प्रकार श्रात्मज्ञानी गुरुके उपदेश द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जा सकता है; श्रात्मज्ञानहीन ( अज्ञानी) गुरुके उपदेशसे वह प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसलिये सच्चे सुखके इच्छुक जीवोंको उपदेशकका चुनाव करनेमें सावधानी रखना श्रावश्यक है । जो उपदेशकका चुनाव करनेमें भूल करते हैं वे सम्यग्दर्शनको प्राप्त नही कर सकते, यह निश्चित समझना चाहिये ॥३॥ तत्त्वोंके नाम जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥
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अर्थ - [जीवाजीवास्रवबंधसंवर निर्जरामोक्षाः ] १ जीव, २ अजीव, ३ श्रास्रव, ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा और ७ मोक्ष, यह सात [ तत्त्वम् ] तत्त्व है ।
टीका
१ - जीव-जीव अर्थात् आत्मा । वह सदा ज्ञाता स्वरूप, परसे भिन्न श्रीर त्रिकालस्थायी है जब वह पर-निमित्तके शुभ अवलंबनमे युक्त होता है तव उसके शुभभाव (पुण्य) होता है, श्रीर जव अशुभावलंबनमें युक्त होता है तब प्रशुभभाव ( पाप ) होता है, और जब स्वावलंबी होता है तव शुद्धभाव ( धर्म ) होता है ।
२- अजीव जिसमे चेतना-ज्ञातृत्त्व नहीं है; ऐसे द्रव्य पाँच हैं । उनमें सेप, अधर्म, श्राकाश और काल यह चार अरुपी हैं तथा पुद्गल रूपी ( रग, गंध, वां सहित ) है अजीव वस्तुएँ आत्मासे भिन्न हैं, तथा आमा भी एक दूसरे पृथक् स्वतंत्र है । पराश्रयके विना जीवमें विरार नहीं शेष परोग होनेसे जीवके पुण्य-पापके शुभाशुभ विकारी आप होते हैं।
३- आपन-विहारी शुभाशुभभाव जो अस्पी अवस्था जीवमें
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