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अध्याय १ सूत्र ४ होती है वह भावात्रव और नवीन कर्म-रजकणोंका आना (आत्माके साथ एक क्षेत्र मे रहना) सो द्रव्यास्रव है।
पुण्य-पाप दोनों प्रास्रव और बंध के उपभेद है ।
पुण्य-दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत इत्यादि जो शुभ भाव जीवके होते हैं वह अरूपी विकारी भाव है, वह भाव पुण्य है, और उसके निमित्तसे जड़ परमाणुओंका समूह स्वयं (अपने ही कारणसे स्वतः) एक क्षेत्रावगाह सम्बन्धसे जीव के साथ बँधता है, वह द्रव्य-पुण्य है।
पाप-हिंसा, असत्य, चोरी, अन्नत इत्यादि जो अशुभभाव है सो भाव-पाप है, और उसके निमित्तसे जड़की शक्तिसे जो परमाणुओंका समूह स्वयं बंधता है वह द्रव्य-पाप है।
परमार्थतः-वास्तवमे यह पुण्य-पाप आत्माका स्वरूप नही है, वह आत्माकी क्षणिक अवस्थामे परके सम्बन्धसे होनेवाला विकार है।
४-बंध-आत्माका अज्ञान, राग-द्वेष, पुण्य-पापके भावमे रुक जाना सो भाव-बंध है । और उसके निमित्तसे पुद्गलका स्वयं कर्मरूप बँधना सो द्रव्य-बंध है।
५-संवर-पुण्य-पापके विकारीभावको (प्रास्रवको) आत्माके शुद्ध भाव द्वारा रोकना सो भाव-सवर है, और तदनुसार नये कर्मोका आगमन रुक जाय सो द्रव्य-संवर है।
६-निर्जरा-अखंडानन्द' शुद्ध आत्मस्वभावके लक्षके बलसे स्वरूप स्थिरताकी वृद्धि द्वारा प्राशिकरूपमे शुद्धिकी वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्थाका आंशिक नाश करना सो भाव-निर्जरा है, और उसका निमित्त पाकर जड़कर्मका अशतः खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा है।
७-मोक्ष-अशुद्ध अवस्थाका सर्वथा-सम्पूर्ण नाश होकर आत्माकी पूर्ण निर्मल-पवित्र दशाका प्रगट होना सो भाव-मोक्ष है, और निमित्तकारण द्रव्यकर्मका सर्वथा नाश ( अभाव ) होना सो द्रव्य-मोक्ष है।