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मोक्षशास्त्र अवस्था है। एक एक समय करके वह सादि-अनंत रहती है तथापि एक समयमें एक ही अवस्था होती है, सादि अनंत-अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलवीर्य-युक्त-फलरूप अनंत चतुष्टयके साथ रहनेवाली परम उत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्ध परिणति जो कार्यशुद्ध पर्याय है, उसे क्षायिकभाव भी कहते है। और उसी समय आत्माका पुरुषार्थका निमित्त पाकर कर्मावरणका नाश होना सो कर्मका क्षय है।
(३) क्षायोपशमिकभाव-आत्माके पुरुषार्थका निमित्त पाकर जो कर्मका स्वयं प्रांशिक क्षय और आंशिक उपशम वह कर्मका क्षयोपशम है, और क्षायोपशमिकभाव आत्माकी पर्याय है। यह भी आत्माकी एक समय की अवस्था है, वह उसकी योग्यताके अनुसार उत्कृष्ट कालतक भी रहती है, किन्तु प्रति समय बदलकर रहती है।
(४) औदयिकभाव-कर्मोके निमित्तसे आत्मा अपनेमें जो विकारभाव करता है सो औदयिकभाव है। यह भी आत्माकी एक समय की अवस्था है।
(५) पारिणामिकभाव-'पारिणामिक' का अर्थ है सहजस्वभाव, उत्पाद-व्यय-रहित ध्रुव-एकरूप स्थिर रहनेवाला भाव पारिणामिकभाव है। पारिणामिकभाव सभी जीवोंके सामान्य होता है। मोदयिक, औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक-इन चार भावोसे रहित जो भाव है सो पारिणामिक भाव है । 'पारिणामिक' कहते ही ऐसा ध्वनित होता है कि द्रव्य-गुण का नित्य वर्तमानरूप निर्पेक्षता है, ऐसी द्रव्यकी पूर्णता है। द्रव्य-गुण और निर्पेक्ष पर्यायरूप वस्तुकी जो पूर्णता है उसे पारिणामिकभाव कहते है।
जिसका निरंतर सद्भाव रहता है उसे पारिणामिकभाव कहते है। जिसमे सर्वभेद गर्मित है ऐसा चैतन्यभाव ही जीवका पारिणामिकभाव है। मतिज्ञानादि तथा केवलज्ञानादि जो अवस्थाएँ है वे पारिणामिकभाव नही है।
भतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान (यह अवस्थाएँ) क्षायोपशमिकभाव हैं, केवलज्ञान ( अवस्था ) क्षायिकभाव है। केवलज्ञान प्रगट होनेसे पूर्व ज्ञानका विकासका जितना अभाव है वह औदयिकभाव है।