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अध्याय २ सूत्र १
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ज्ञान-दर्शन और वीर्यगुणको अवस्थामे ओपशमिकभाव होता ही नही । मोहका हो उपशम होता है, उसमें प्रथम मिथ्यात्वका ( दर्शनमोहका ) उपशम होने पर जो निश्चय सम्यक्त्व प्रगट होता है वह श्रद्धागुणका ओपशमिक भाव है ।
( ज्ञान, दर्शन और वीर्य गुरणकी पर्यायमें पूर्ण विकासका जितना अभाव है वह भी श्रीदयिकभाव है, वह १२ वें गुरगस्थान तक है ) २. यह पाँच भाव क्या बतलाते हैं ?
( १ ) जीवमे एक अनादि अनंत शुद्ध चैतन्य स्वभाव है, यह पारिणामिकभाव सिद्ध करता है ।
(२) जीवमे अनादि अनंत शुद्ध चैतन्यस्वभाव होनेपर भी उसकी श्रवस्थामे विकार है, ऐसा औदयिकभाव सिद्ध करता है । (३) जड़कर्मके साथ जीवका अनादिकालीन संबंध है श्रौर जीव अपने ज्ञाता स्वभावसे च्युत होकर जडकर्म की ओर झुकाव करता है जिससे विकार होता है किन्तु कर्मके कारण विकारभाव नही होता, यह भी श्रदयिकभाव सिद्ध करता है । (४) जीव अनादिकालसे विकार करता हुआ भी जड नही हो जाता और उसके ज्ञान, दर्शन तथा वीर्यका आशिक विकास सदा बना रहता है, यह क्षायोपशमिकभाव सिद्ध करता है । ( ५ ) श्रात्माका स्वरूप यथार्थतया समझकर जब जीव अपने पारिणामिकभावका आश्रय लेता है तब श्रदयिकभावका दूर होना प्रारंभ होता है, मोर पहिले श्रद्धागुणका श्रदयिकभाव दूर होता है, यह औपशमिकभाव सिद्ध करता है । (६) सच्ची समझके वाद जीव जैसे २ सत्यपुरुषार्थको बढ़ाता है वैसे २ मोह अंशतः दूर होता जाता है यह क्षायोपशमिक भाव सिद्ध करता है ।
(७) यदि जीव प्रतिहतभावसे पुरुषार्थ मे आगे बढ़ता है तो चारित्रमोह स्वय दब जाता है [ उमशमको प्राप्त होता है ]
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