________________
अध्यायः१ सूत्र ३३
१०६ प्रमाणका स्वरूप कहा गया, अब श्रुतज्ञानके अंशरूप नयका
स्वरूप कहते हैं। नैगमसंग्रहव्यवहारजु सूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः॥३३॥
अर्थ-[ नैगम ] नैगम [ संग्रह ] संग्रह [ व्यवहार ] व्यवहार [ऋजुसूत्र] ऋजुसूत्र [शब्द] शब्द [समभिरूढ़] समभिरूढ़ [एवंभूता] एवंभूत-यह सात [ नयाः ] नय[ Viewpoints ] हैं ।
टीका वस्तुके अनेक धर्मोमे से किसी एककी मुख्यता करके अन्य धर्मोका विरोध किये विना उन्हे गौण करके साध्यको जानना सो नय है।
प्रत्येक वस्तुमे अनेक धर्म रहे हुए हैं इसलिये वह अनेकान्तस्वरूप है। [ 'अन्त' का अर्थ 'धर्म' होता है ] अनेकान्तस्वरूप समझानेकी पद्धतिको 'स्याद्वाद' कहते हैं। स्याद्वाद द्योतक है, अनेकान्त द्योत्य है। 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' होता है, अर्थात् किसी यथार्थ प्रकारकी विवक्षा का कथन स्याद्वाद है। अनेकान्तका प्रकाश करनेके लिये 'स्यात् शब्दका प्रयोग किया जाता है।
हेतु और विपयकी सामर्थ्यकी अपेक्षासे प्रमाणसे निरूपण किये गये अर्थके एक देशको कहना सो नय है। उसे 'सम्यक् एकान्त' भी कहते हैं । श्रुतप्रमाण दो प्रकारका है स्वार्थ और परार्थ । उस श्रुतप्रमाणका अंश नय है। शास्त्रका भाव समझनेके लिये नयोका स्वरूप समझना आवश्यक है, सात नयोका स्वरूप निम्नप्रकार है।
१-नैगमनय-जो भूतकालकी पर्यायमे वर्तमानवत् सकल्प करे
अथवा भविष्यकी पर्यायमें वर्तमानवत् संकल्प करे तथा वर्तमान पर्यायमे कुछ निष्पन्न (प्रगटरूंप) है और कुछ निष्पन्न नहीं है उसका निष्पन्नरूप संकल्प करे उस ज्ञानको तथा वचनको नैगमनय कहते हैं । [ Figurative ]