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अध्याय ८ उपसंहारा
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हो ही नही सकता । इसलिये जैनदर्शनकी अन्य किसी भी दर्शनके साथ समानता मानना सो विनय मिध्यात्व है ।
४——– मिथ्यात्वके सम्बन्धमे पहले सूत्रमें जो विवेचन किया गया है वह यथार्थ समझना ।
५- वंधतत्त्व सम्वन्धी ये खास सिद्धान्त ध्यान में रखने योग्य है कि शुभ तथा अशुभ दोनों ही भाव बधके कारण है इसलिये उनमें फर्क नही है अर्थात् दोनों बुरे हैं । जिस अशुभ भावके द्वारा नरकादिरूप पापबध हो उसे तो जीव बुरा जानता है, किन्तु जिस शुभभावके द्वारा देवादिरूप पुण्यवन्ध हो उसे यह भला जानता है, इस तरह दुःखसामग्रीमें ( पापबन्धके फलमे ) द्वेप और सुख सामग्री में ( पुण्यबन्धके फलमें ) राग हुआ; इसलिये पुण्य अच्छा और पाप खराब है, यदि ऐसा मानें तो ऐसी श्रद्धा हुई कि राग द्वेष करने योग्य है, और जैसे इस पर्याय सम्बन्धी राग द्वेष करनेकी श्रद्धा हुई वैसी भावी पर्याय सम्बन्धी भी सुख दुःख सामग्रीमें राग द्वेष करने योग्य है ऐसी श्रद्धा हुई । अशुद्ध ( शुभ - अशुभ ) भावोके द्वारा जो कर्म वन्ध हो उसमे अमुक अच्छा श्रोर अमुक बुरा ऐसा भेद मानना ही मिथ्या श्रद्धा है, ऐसी श्रद्धासे बन्धतत्त्वका सत्य श्रद्धान नही होता । शुभ या अशुभ दोनों वन्धभाव है, इन दोनोंसे घातिकर्मोका बन्ध तो निरन्तर होता है; सव घातिया कर्म पापरूप ही है और यही श्रात्मगुरगके घातनेमें निमित्त है । तो फिर शुभभावसे जो बन्ध हो उसे अच्छा क्यो कहा है ? ( मो० प्र० ) ६ -- यहाँ यह बतलाते है कि जीवके एक समयके विकारीभावमेंसात कर्म के बन्ध में और किसी समय आठों प्रकारके कर्मके बन्धमे निमित्त होनेकी योग्यता किस तरह होती है—
(१) जीव अपने स्वरूपकी असावधानी रखता है, यह मोह कर्मके वन्धका निमित्त होता है ।
(२) स्वरूपकी असावधानी होनेसे जीव उस समय अपना ज्ञान अपनी ओर न मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव - ज्ञानावरण कर्मके वन्धका निमित्त होता है ।