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अध्याय १ परिशिष्ट १
१३५ इत्येवं ज्ञानतत्त्वोसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ॥३७१॥
मर्थ-इसप्रकार तत्त्वोंको जाननेवाले स्वात्मदर्शी सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानमें राग द्वेषको छोड़ते हैं ।
अपराण्यपि लक्ष्माणि सन्ति सम्यग्गात्मनः । सम्यक्त्वेनाविनाभृतेर्यै (च) संलक्षते सुदृक् ।।३७३॥
प्रर्थ-सम्यग्दृष्टि जीवके दूसरे लक्षण भी हैं । जिन सम्यक्त्वके अविनाभावी लक्षणोंके द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव लक्षित होता है ।
वे लक्षरण गाथा ३७४ में कहते हैउक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं दृगात्मनः।
नादेयं कर्म सर्वच (स्व) तद्वद् दृष्टोपलब्धितः ॥३७४॥
अर्थ-जैसे ऊपर कहा है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानका आदर नहीं है तथा आत्म प्रत्यक्ष होनेसे सभी कर्मोका भी आदर नही है।
गाथा ३७५-३७६ का इतना ही अर्थ है कि-सम्यग्दर्शन केवलज्ञानादिका प्रत्यक्ष विषय है और मति श्र तज्ञानका प्रत्यक्ष विषय नही है, किन्तु मति श्र तज्ञानमे वह उसके लक्षणोके द्वारा जाना जा सकता है, और केवलज्ञानादि ज्ञानमे लक्षण लक्ष्यका भेद किये बिना प्रत्यक्ष जाना जा सकता है।
प्रश्न:-इस विषयको दृष्टांत पूर्वक समझाइए ?
उत्तर:-स्वानुभवदशामे जो आत्माको जाना जाता है सो श्रुतज्ञानके द्वारा जाना जाता है। श्र तज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ही होता है, वह मतिज्ञान-श्रुतज्ञान परोक्ष है इसलिये वहाँ आत्माका जानना प्रत्यक्ष नही होता । यहाँ जो आत्माको भलीभांति स्पष्ट जानता है उसमें पारमार्थिक प्रत्यक्षत्व नही है तथा जैसे पुद्गल पदार्थ नेत्रादिके द्वारा जाना जाता है उसीप्रकार एकदेश (अंशतः ) निर्मलता पूर्वक भी आत्माके असंख्याति प्रदेशादि नहीं जाने जाते, इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी नही है ।