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मोक्षशास्त्र
अनुभवमें आत्मा तो परोक्ष ही है, कहीं आत्माके प्रदेशोंका आकार भासित नही होता, परन्तु स्वरूपमें परिणाम मग्न होने पर जो स्वानुभव हुआ वह ( स्वानुभव ) प्रत्यक्ष है । इस स्वानुभवका स्वाद कही ग्रागमअनुमानादि परोक्षप्रमाणके द्वारा ज्ञात नही होता, किन्तु स्वयं ही इस ग्रनुभवके रसास्वादको प्रत्यक्ष वेदन करता है जानता है । जैसे कोई अन्य पुरुष मिश्रीका स्वाद लेता है, वहीं मिश्रीका आकारादि परोक्ष है, किन्तु जिह्वा द्वारा स्वाद लिया है इसलिए वह स्वाद प्रत्यक्ष है, ऐसा अनुभव के सम्बन्धमे जानना चाहिए । [ टोडरमलजी की रहस्य पूर्ण चिट्ठी । ] यह दशा चौथे गुणस्थान में होती है ।
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इस प्रकार आत्माका अनुभव जाना जा सकता है, और जिस जीव को उसका अनुभव होता है उसे सम्यग्दर्शन अविनाभावी होता है, इसलिए मतिश्र ुतज्ञानसे सम्यग्दर्शन भलीभांति जाना जा सकता है ।
प्रश्नः -- इस सम्बन्धमे पंचाध्यायीकारने क्या कहा है ?
उत्तर - पंचाध्यायी के पहले अध्यायमे मति श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि-
अपि किचाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिमं यावत् । स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥७०६॥ अर्थः-- और विशेष यह है कि-स्वानुभूतिके समय जितना भी पहिले उस मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका द्वैत रहता है उतना वह सब साक्षात् प्रत्यक्ष की भाँति प्रत्यक्ष है, दूसरा नही - परोक्ष नहीं ।
भावार्थ:- - तथा उस मति और श्रुतज्ञानमें भी इतनी विशेषता है कि- जिस समय उन दो ज्ञानोंमेसे किसी एक ज्ञानके द्वारा स्वानुभूति होती है उस समय यह दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रिय स्वात्माको प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए यह दोनो ज्ञान भी स्वानुभूति के समय प्रत्यक्ष है-परोक्ष नही । प्रश्नः -- क्या इस सम्बन्धमे कोई और शास्त्राधार है ?
उत्तरः- हाँ, पं० टोडरमलजीकृत रहस्यपूर्ण चिट्ठीमें निम्नप्रकार
कहा है: