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अध्याय १ परिशिष्ट १ ( ५ )
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चारित्रगुणकी मुख्यतासे निश्चयसम्यग्दर्शनकी व्याख्या
(१) "ज्ञानचेतनामें 'ज्ञान' शब्दसे ज्ञानमय होनेके कारण शुद्धात्माका ग्रहण है, और वह शुद्धात्मा जिसके द्वारा अनुभूत होता है उसे ज्ञानचेतना कहते हैं" [ पंचाध्यायी अध्याय २ गाथा १६६ -- भावार्थं ० ]
(२) उसका स्पष्टीकररण यह है कि-प्रात्माका ज्ञानगुण सम्यक्त्व - युक्त होनेपर आत्मस्वरूपकी जो उपलब्धि होती है, उसे ज्ञानचेतना कहते हैं' | [ पंचाध्यायी गाथा १६७ ]
(३) 'निश्वयसे यह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टिके ही होती है । [ पंचाध्यायी गाथा १८८]
नोट:- यहाँ आत्माका जो शुद्धोपयोग है- अनुभव है वह चारित्रगुणकी पर्याय है ।
(४) आत्माकी शुद्ध उपलब्धि सम्यग्दर्शनका लक्षण है [ पंचाध्यायी गाथा २१५]
नोट:- यहाँ इतना ध्यान रखना चाहिये कि ज्ञानकी मुख्यता या चारित्रको मुख्यतासे जो कथन है उसे सम्यग्दर्शनका बाह्य लक्षण जानना चाहिये, क्योकि सम्यज्ञान और अनुभव के साथ सम्यग्दर्शन अविनाभावी है इसलिये वे सम्यग्दर्शनको अनुमानसे सिद्ध करते है । इस अपेक्षासे इसे व्यवहार कथन कहते हैं और दर्शन [ श्रद्धा ] गुणकी अपेक्षासे जो कथन है उसे निश्चय कथन कहते हैं |
(५) दर्शनका निश्चय स्वरूप ऐसा है कि- भगवान् परमात्म स्वभावके अतीन्द्रिय सुखकी रुचि करनेवाले जीवमे शुद्ध अन्तरंग आत्मिक तत्त्वके श्रानन्दको उत्पन्न होनेका धाम ऐसे शुद्ध जीवास्तिकायका ( अपने जीवस्वरूपका ) परमश्रद्धान, दृढ़ प्रतीति और सच्चा निश्चय ही दर्शन है ( यह व्याख्या सुख गुरगकी मुख्यतासे है । )