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मोक्षशास्त्र
( ६ ) अनेकान्त स्वरूप
दर्शन - ज्ञान - चारित्र सम्बन्धी अनेकान्त स्वरूप समझने योग्य है इसलिये वह यहाँ कहा जाता है ।
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(१) सम्यग्दर्शन - सभी सम्यग्दृष्टियोंके ग्रर्थात् चोथे गुणस्थानसे सिद्धोंतक सभीके एक समान है, अर्थात् शुद्धात्माकी मान्यता उन सबके एकसी है - मान्यतामे कोई अन्तर नही है ।
(२) सम्यग्ज्ञान - सभी सम्यग्दृष्टियोंके सम्यक्त्वकी अपेक्षासे ज्ञान एक ही प्रकारका है किन्तु ज्ञान किसीके हीन या किसीके अधिक होता है । तेरहवें गुणस्थानसे सिद्धोतकका ज्ञान सम्पूर्ण होनेसे सर्व वस्तुओको युगपत् जानता है । नीचेके गुणस्थानोमें [ चौथेसे बारहवें तक ] ज्ञान क्रमशः होता है, और वहाँ यद्यपि ज्ञान सम्यक् है तथापि कम बढ़ होता है, उस अवस्थामें जो ज्ञान विकासरूप नही है वह अभावरूप है, इसप्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमे अन्तर है |
(३) सम्यक् चारित्र- - सभी सम्यग्दृष्टियोके जो कुछ भी चारित्र प्रगट हुआ हो सो सम्यक् है । और जो दसवें गुरणस्थान तक प्रगट नही हुआ सो विभावरूप है । तेरहवें गुरणस्थानमे अनुजीवी योग गुरण कंपनरूप होनेसे विभावरूप है, और वहाँ प्रतिजीवीगुरण बिलकुल प्रगट नही है । चौदहवें गुणस्थानमे भी उपादानकी कच्चाई है इसलिये वहाँ औदयिकभाव है ।
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(४) जहाँ सम्यग्दर्शन है वहाँ सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरणचारित्रका अंश अभेदरूप होता है; ऊपर कहे अनुसार दर्शनगुरण से ज्ञानगुण का पृथक्त्व और उन दोनों गुणोसे चारित्रगुरणका पृथक्त्व सिद्ध हुआ, इसप्रकार अनेकान्त स्वरूप हुआ ।
( ५ ) यह भेद पर्यायार्थिकनयसे है । द्रव्य अखण्ड है इसलिये द्रव्यार्थिकनयसे सभी गुण अभेद - अखण्ड है, ऐसा समझना चाहिये ।