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अध्याय १ परिशिष्ट १
१२.५
दर्शन [ श्रद्धा ], ज्ञान, चारित्र इन तीनों गुणोंकी अभेददृष्टिसे
निश्चय सम्यग्दर्शनकी व्याख्या (१) अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मस्वरूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है उसी समय आत्मा सम्यक्प से दिखाई देता है-[ अर्थात् श्रद्धा की जाती है ] और ज्ञात होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। नयोंके पक्षपातको छोडकर एक अखण्ड प्रतिभासको अनुभव करना ही 'सम्यग्दर्शन' और 'सम्यग्ज्ञान' ऐसे नाम पाता है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कही अनुभवसे भिन्न नहीं है। [ समयसार गाथा १४४ टीका भावार्थ, ] (२) वर्ते निज स्वभावका अनुभव लक्ष प्रतीत, वृचि वहे जिनभावमें परमार्थे समकित ।
[आत्मसिद्धि गाथा १११ ] अर्थ-अपने स्वभावकी प्रतीति, ज्ञान और अनुभव वर्ते और अपने भावमे अपनी वृत्ति वहे सो परमार्थ सम्यक्त्व है।
(८) निश्चय सम्यग्दर्शनका चारित्रके भेदोंकी अपेक्षासे कथन
निश्चय सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है, चौथे और पांचवें गुणस्थानमे चारित्रमें मुख्यतया राग होता है इसलिये उसे 'सराग सम्यक्त्व' कहते है । छठे गुणस्थानमे चारित्रमे राग गौण है, और ऊपरके गुणस्थानोंमे उसके दूर होते होते अन्तमे सम्पूर्ण वीतराग चारित्र हो जाता है, इसलिये छठे गुणस्थानसे 'वीतराग सम्यक्त्व,' कहलाता है।
निश्चय सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें प्रश्नोचर प्रश्न:-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीके निमित्तसे होनेवाले विपरीत अभिनिवेशसे रहित जो श्रद्धा है सो निश्चय सम्यक्त्व है या व्यवहार सम्यक्त्व ?