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मोक्षशास्त्र
हो तदनुसार उस ज्ञानको सत्य या मिथ्या मान लेना चाहिये । जैसे- एक चन्द्रमा के देखने पर यदि दो चन्द्रमाका ज्ञान हो और वहाँ यदि देखनेवाले का लक्ष केवल चन्द्रमाको समझ लेनेकी ओर हो तो उस ज्ञानको सत्य मानना चाहिये, और यदि देखनेवालेका लक्ष एक या दो ऐसी संख्या निश्चित करने की ओर हो तो उस ज्ञानको असत्य ( मिथ्या ) मानना चाहिये ।
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इस नियम अनुसार ईहामें ज्ञानका अधिकांश विषयका सत्यांशग्राही ही होता है इसलिये ईहाको सत्यज्ञान में माना गया है ।
'धारणा' और 'संस्कार' संबंधी स्पष्टीकरण
शंका- धारणा किसी उपयोग ज्ञानका नाम है या संस्कारका ? शंकाकारका तर्क यदि उपयोगरूप ज्ञानका नाम धारणा हो तो
वह धारणा स्मरणको उत्पन्न करनेके लिये समर्थ नही हो सकती, क्योंकि कार्य कारणरूप पदार्थोंमें परस्पर कालका अंतर नही रह सकता । धारणा कब होती है और स्मरण कब, इसमें कालका बहुत बड़ा अंतर पड़ता है । यदि उसे (धारणाको ) संस्काररूप मानकर स्मरणके समय तक विद्यमान मानने की कल्पना करें तो वह प्रत्यक्षका मेद नही होता; क्योकि संस्काररूप ज्ञान भी स्मरणकी अपेक्षासे मलिन है; स्मरण उपयोगरूप होनेसे अपने समयमें दूसरा उपयोग नही होने देता और स्वयं कोई विशेषज्ञान उत्पन्न करता है, किन्तु धारणाके संस्काररूप होनेसे उसके रहने पर भी अन्यान्य अनेक ज्ञान उत्पन्न होते रहते है, और स्वयं वह धारणा तो अर्थ का ज्ञान ही नही करा सकती ।
[ यह शंकाकारका तर्क है उसका समाधान करते हैं ]
समाधान- 'धारणा' उपयोगरूप ज्ञानका भी नाम है और संस्कार का भी नाम है | धारणाको प्रत्यक्ष ज्ञानमें माना है और उसकी उत्पत्ति भी अवायके बाद हो होती है; उसका स्वरूप भी अवायकी अपेक्षा अधिक दृढरूप है; इसलिये उसे उपयोगरूप ज्ञानमे गर्भित करना चाहिए ।