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अध्याय ८ सूत्र ४
अर्थ - [प्रायो] पहला प्रर्थात् प्रकृतिबन्ध [ ज्ञानदर्शनावरणवेदनमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ] ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय इन आठ प्रकारका है । टीका
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१ - ज्ञानावरण- - जब मात्मा स्वयं अपने ज्ञानभावका घात करता है अर्थात् ज्ञान शक्तिको व्यक्त नहीं करता तब श्रात्माके ज्ञान गुरणके घात में जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे ज्ञानावरण कहते हैं ।
दर्शनावरण - जब आत्मा स्वयं अपने दर्शनभावका घात करता है तब आत्मा के दर्शनगुरणके घात मे जिस कर्मके उदयका निमित्त हो उसे दर्शनावरण कहते हैं ।
वेदनीय — जब आत्मा स्वयं मोहभावके द्वारा आकुलता करता है तव अनुकूलता - प्रतिकूलतारूप संयोग प्राप्त होनेमे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कहते हैं ।
मोहनीय - जीव अपने स्वरूपको भूलकर अन्यको अपना समझे अथवा स्वरूपाचरणमे असावधानी करता है तब जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे मोहनीय कहते हैं ।
आयु — जीव अपनी योग्यतासे जब नारकी, तियंच, मनुष्य या देवके शरीरमे रुका रहे तब जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे आयुकर्म कहते हैं ।
नाम- -जिस शरीरमे जीव हो उस शरीरादिककी रचनामे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं ।
गोत्र – जीवको उच्च या नीच आचरणवाले कुलमे पैदा होनेमे जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे नामकर्म कहते हैं ।
अंतराय - जीवके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यके विघ्नमें जिस कर्मका उदय निमित्त हो उसे अंतरायकर्म कहते है ।
२ -- प्रकृतिबन्धके इन आठ भेदोंमेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण,