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मोक्षशास्त्र मान्यता आती है। यह अज्ञानरूप मान्यता अनन्त संसारका कारण है। प्रत्येक जीव भी स्वतंत्र है, यदि यह जीव पर जीवोंका कुछ कर सकता और यदि पर जीव इसका कुछ कर सकते तो एक जीव पर दूसरे जीवका स्वामित्व हो जायगा और स्वतंत्र वस्तुका नाश हो जायगा । पुण्य भाव विकार है, स्वद्रव्यका आश्रय भूलकर अनन्त परद्रव्योंके आश्रयसे यह भाव होता है इससे जीवको लाभ होता है यदि ऐसा मानें तो यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि पर द्रव्यका पालम्बनसे (-पराश्रय-पराधीनतासे) लाभ है-सुख है, किन्तु यह मान्यता अपसिद्धान्त है-मिथ्या है।
(२) मिथ्यादृष्टि जीवकी अनादिकालसे दूसरी भूल यह है कि जीव विकारी अवस्था जितना ही है अथवा जन्मसे मरण पर्यन्त ही है ऐसा मानकर कोई समयमें भी ध्रुवरूप त्रिकाल शुद्ध चैतन्य चमत्कार स्वरूपको नही पहचानता और न उसका आश्रय करता है।
इन दो भूलों रूप ही संसार है, यही दुःख है, इसे दूर किये बिना कोई जीव सम्यग्ज्ञानी-धर्मी-सुखी नही हो सकता । जहाँ तक यह मान्यता हो वहाँ तक जीव दुःखी ही है।
श्री समयसार शास्त्र गाथा ३०८ से ३११ मेसे इस सम्बन्धी कुछ प्रमाण दिये जाते हैं.
"समस्त द्रव्योंके परिणाम जुदे जुदे हैं, सभी द्रव्य अपने अपने परिणामोंके कर्ता हैं; वे इन परिणामोके कर्ता हैं, वे परिणाम उनके कर्म हैं। निश्वयसे वास्तव में किसीका किसीके साथ कर्ताकर्म सम्बन्ध नही है, इसलिए जीव अपने परिणामोंका कर्ता है, अपने परिणाम कर्म हैं। इसीतरह अजीव अपने परिणामका ही कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है। इसप्रकार जीव दूसरेके परिणामोंका अकर्ता है।"
( स० सार कलश १९६ ) "जो अज्ञान-अन्धकारसे आच्छादित होकर आत्माको ( परका ) कर्ता मानते हैं वे चाहे मोक्षके इच्छुक हों तो भी सामान्य ( लौकिक ) जनोंकी तरह उनको भी मोक्ष नही होता।"
'जो जीव व्यवहारसे मोहित होकर परद्रव्यका कर्तापन मानता है