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________________ अध्याय ७ सूत्र ११-१२ ५६६ श्रद्धावाले हैं और जिनने द्वेषादिकके वश हो वस्तु स्वरूपको अन्यथा ग्रहण कर रखा है, ऐसे जीव श्रविनयी है, ऐसे जीवोको अपहृष्टि- मूढदृष्टि भी कहते हैं ॥ ११ ॥ व्रतोंकी रक्षा के लिये सम्यग्दृष्टिकी विशेष भावना जगत्कायस्वभाव वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥ अर्थ - [ संवेगवैराग्यार्थम् ] सवेग अर्थात् संसारका भय और वैराग्य अर्थात् रागद्वेषका अभाव करनेके लिये क्रमसे संसार और शरीर के स्वभावका चितवन करना चाहिये । टीका १. जगत्का स्वभाव छह द्रव्योके समूहका नाम जगत् है । प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त हैं । इनमे जीवके अतिरिक्त पाँच द्रव्य जड़ है और जीवद्रव्य चेतन है | जीवोंकी सख्या अनन्त है, पाँच अचेतन द्रव्योके सुख दुःख नही, जीव द्रव्य के सुख दुःख है । अनन्त जीवोमें कुछ सुखी हैं और बहुभागके जीव दुःखी हैं । जो जीव सुखी हैं वे सम्यग्ज्ञानी ही हैं, बिना सम्यग्ज्ञानके कोई जीव सुखी नही हो सकता; सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानका कारण है; इस तरह सुखका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे ही होता है और सुखकी पूर्णता सिद्धदशामें होती है । स्वस्वरूपको नही समझनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव दुःखी हैं । इन जीवोके अनादिसे दो बड़ी भूले लगी हुई है, वे भूलें निम्नप्रकार हैं (१) ऐसी मान्यता मिथ्यादृष्टिकी है कि शरीरादि परद्रव्यका में कर सकता है और परद्रव्य मेरा कर सकते हैं, इसप्रकार परवस्तुसे मुझे लाभ-हानि होती है और जीवको पुण्यसे लाभ होता है । यह मिथ्या मान्यता है | शरीरादिकके प्रत्येक परमाणु स्वतंत्र द्रव्य है, जगत्का प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है । परमाणु द्रव्य स्वतंत्र है तथापि जीव उसे हला चला सकता है, इसकी व्यवस्था संभाल सकता है, ऐसी मान्यता द्रव्योंकी स्वतंत्रता छीन लेनेके बराबर है और इसमे प्रत्येक रजकरण पर जीवके स्वामित्व होनेकी ७२
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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