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अध्याय ७ सूत्र १३
५७५ है और उससे पाप है । शाखोंमें कहा है कि-प्राणियोंका प्राणोंके अलग होने मात्रसे हिंसाका बंध नही होता; जैसे कि ईर्यासमितिवाले मुनिके उनके निकलनेके स्थानमे यदि कोई जीव आजाय और परके संयोगसे वह जीव मर जाय तो वहाँ उस मुनिके उस जीवकी मृत्युके निमित्तसे जरा भी वन्ध नहीं होता, क्योंकि उनके भावमे प्रमाद योग नहीं है।
२. आत्माके शुद्धोपयोगरूप परिणामको घातनेवाला भाव ही संपूर्ण हिसा है। असत्य वचनादि भेद मात्र शिष्योको समझानेके लिये उदाहरण रूप कहे हैं । वास्तवमे जैन शास्त्रका यह थोड़ेमे रहस्य है कि 'रागादिभावों की उत्पत्ति न होना सो अहिसा है और रागादि भावोकी उत्पत्ति होना सो हिंसा है'। (पुरुषार्थ सिद्धय पाय गाथा ४२-४४)
३. प्रश्न-चाहे जीव मरे या न मरे तो भी प्रमादके योगसे ( प्रयत्नाचारसे ) निश्चय हिसा होती है तो फिर यहाँ सूत्रमे 'प्राणव्यपरोपणं' इस शब्दका किसलिये प्रयोग किया है ?
उत्तर--प्रमाद योगसे जीवके अपने भाव प्राणोका घात (मरण) अवश्य होता है। प्रमादमें प्रवर्तनेसे प्रथम तो जीव अपने ही शुद्ध भावप्राणोका वियोग करता है, फिर वहाँ अन्य जीवके प्राणोंका वियोग ( व्यपरोपण ) हो या न हो, तथापि अपने भावप्राणोका वियोग तो अवश्य होता है-यह बतानेके लिये 'प्राणव्यपरोपणं' शब्दका प्रयोग किया है।
४. जिस पुरुषके क्रोधादि कषाय प्रगट होती है उसके अपने शुद्धोपयोगरूप भावप्राणोंका घात होता है। कषायके प्रगट होनेसे जीवके भावप्राणोंका जो व्यपरोपण होता है सो भाव हिंसा है और इस हिसाके समय यदि प्रस्तुत जीवके प्राणका वियोग हो तो वह द्रव्य हिंसा है।
५. यह जैन सिद्धान्तका रहस्य है कि आत्मामे रागादि भावोकी उत्पत्ति होनेका नाम ही भावहिंसा है । जहाँ धर्मका लक्षण अहिंसा कहा है वहाँ ऐसा समझना कि 'रागादि भावोका जो अभाव है सो अहिंसा है'। इसलिये विभाव रहित अपना स्वभाव है ऐसे भावपूर्वक जिसतरह जितना बने उतना अपने रागादि भावोंका नाश करना सो धर्म है। मिथ्याष्टि