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मोक्षशास्त्र
जीवके रागादि भावोंका नाश नहीं होता; उसके प्रत्येक समय में भाव मरण हुआ ही करता है; जो भावमरण है वही हिंसा है इसीलिये उसके धर्मका अंश भी नहीं है ।
६. इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति पापमें हो या पुण्यमें हो किन्तु उस प्रवृत्तिके दूर करनेका विचार न करना सो प्रमाद है | ( तत्त्वार्थसार पृष्ठ २२३ ) ७. इस हिंसा पापमें असत्य आदि दूसरे चार पाप गर्भित हो जाते है | सत्य इत्यादि भेद तो शिष्यको समझानेके लिये मात्र दृष्टान्तंरूपसे पृथक् बतलाये हैं ।
८. यदि कोई जीव दूसरेको मारना चाहता हो किन्तु ऐसा प्रसंग न मिलनेसे नही मार सका, तो भी उस जीवके हिंसाका पाप लगा, क्योकि वह जीव प्रमादभावसहित है और प्रमादभाव ही भावप्रारणोंकी हिसा है । ६. जो ऐसा मानता है कि 'मैं पर जीवोंको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं' वह मूढ़ है-अज्ञानी है और इससे विपरीत अर्थात् जो ऐसा नही मानता वह ज्ञानी है ( देखो समयसार गाथा २४७ )
जीवोंको मारो या न मारो - श्रध्यवसानसे ही कर्मवन्ध होता है । प्रस्तुत जीव मरे या न मरे, इस कारण से बन्ध नही है ।
( देखो समयसार गाथा २६२ ) १. यहाँ योगका अर्थ सम्बन्ध होता है । 'प्रमत्त योगात्' का अर्थ है प्रमादके सम्बन्धसे । यहाँ ऐसा अर्थ भी हो सकता है कि मन-वचन-कायके आलम्बनसे आत्मा के प्रदेशोंका हलन चलन होना सो योग है । प्रमादरूप परिणामके सम्बन्धसे होनेवाला योग 'प्रमत्त योग' है ।
११. प्रमादके १५ भेद हे ४ विकथा ( स्त्रीकथा, भोजनकथा • राजकथा, चोरकथा ), ५ इद्रियोके विषय, ४ कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ), १ निद्रा और १ प्रणय । इद्रियाँ वगैरह तो निमित्त हैं और जीवका जो असावधान भाव है सो उपादान कारण है । प्रमादका अर्थ अपने स्वरूपकी असावधानी भी होता है ।