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मोक्षशास्त्र
वैसी ही हालत उसके स्वाधीनरूपसे होती है । परद्रव्योंकी अवस्था में जीवका कुछ भी कर्तृत्व नही है । इतनी बात जरूर है कि उस समय रागी जीवके अपनेमें जो कषायवाला उपयोग और योग होता है उसका कर्ता स्वयं वह जीव है ।
सम्यग्दृष्टि जीव ही जगत् ( अर्थात् संसार ) और शरीर के स्वभाव का यथार्थ विचार कर सकता है । जिनके जगत् और शरीर के स्वभावकी यथार्थ प्रतीति नही ऐसे जीव ( मिथ्यादृष्टि जीव ) 'यह शरीर अनित्य है, संयोगी है, जिसका सयोग होता है उसका वियोग होता है' इसप्रकार शरीराश्रित मान्यतासे ऊपरी वैराग्य ( अर्थात् मोहगर्भित या द्वेषगर्भित वैराग्य ) प्रगट करते है, किन्तु यह सच्चा वैराग्य नही है । सच्चा ज्ञानपूर्वक वैराग्य ही सच्चा वैराग्य है । आत्माके स्वभावको जाने विना यथार्थ वैराग्य नही होता । आत्मज्ञानके बिना मात्र जगत और शरीरकी क्षणिकताके श्राश्रयसे हुआ वैराग्य अनित्य जाग्रिका है, इस भावमें धर्म नही है । सम्यग्दृष्टि अपने असंयोगी नित्य ज्ञायक स्वभावके आलम्बन पूर्वक अनित्य भावना होती है, यही सच्चा वैराग्य है ॥ १२ ॥
हिसा- पापका लक्षण
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा ॥ १३ ॥
अर्थ - [ प्रमत्तयोगात् ] कषाय-राग- - द्वेष अर्थात् अयत्नाचार ( असावधानीप्रमाद ) के सम्बन्धसे अथवा प्रमादी जीवके मन-वचन-काय योगसे [ प्रारणव्यपरोपरणं ] जीवके भाव प्रारणका, द्रव्यप्रारणका अथवा इन दोनोंका वियोग करना सो [ हिंसा ] हिंसा है ।
टीका
१. जैनशासनका यह एक महासूत्र है इसे ठीक ठीक -- समभनेकी जरूरत है ।
इस सूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' शब्द भाव वाचक है वह यह बतलाता है कि प्रारणोंके वियोग होने मात्रसे हिंसाका पाप नहीं किन्तु प्रमादभाव हिसा