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________________ ४०४ मोक्षशास्त्र टीका (१) आकाशके जितने हिस्से में जीव आदि छहों द्रव्य है उतने हिस्सेको लोकाकाश कहते हैं और अवशिष्ट आकाशको अलोकाकाश कहते (२) आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। उसमें कोई भाग नहीं होते, किन्तु परद्रव्यके अवगाह की अपेक्षासे यह भेद होता है-अर्थात् निश्चय से आकाश एक अखण्ड द्रव्य है, व्यवहारसे परद्रव्यके निमित्त की अपेक्षासे ज्ञानमें उसके दो भाग होते है-लोकाकाश और अलोकाकाश । (३ ) प्रत्येक द्रव्य वास्तवमें अपने अपने क्षेत्रमें रहता है। लोका- , काशमें रहता है, यह परद्रव्यकी अपेक्षासे निमित्तका कथन है। उसमें पर क्षेत्रको अपेक्षा आती है, इसलिये वह व्यवहार है। ऐसा नही है कि आकाश पहले हुना हो तथा दूसरे द्रव्य उसमें बादमे उत्पन्न हुए हों क्योकि सभी द्रव्य अनादि अनन्त हैं। (४) आकाश स्वयं अपनेको अवगाह देता है, वह अपनेको निश्चय अवगाहरूप है । दूसरे द्रव्य आकाशसे बड़े नही हैं और न हो ही सकते है, इसलिये उसमें व्यवहार अवगाह की कल्पना नही हो सकती। (५) सभी द्रव्योंमें अनादि पारिणामिक, युगपदत्व हैं, आगे पीछे का भेद नही है। जैसे युतसिद्धके व्यवहारसे आधार-आधेयत्व होता है उसीप्रकार अयुतसिद्धके भी व्यवहारसे आधार-प्राधेयत्व होता है । युत्सिद्धबादमें मिले हुए, अयुसिद्ध-मूलसे एकमेक । दृष्टान्त'टोकरीमे बेर' बादमें मिले हुए का दृष्टान्त है; और 'खम्भेमे सार' मूलतः एकत्वका दृष्टान्त है। (६) एवंभूत नयकी अपेक्षासे अर्थात् जिस स्वरूपसे पदार्थ है उस स्वरूपके द्वारा निश्चय करनेवाले नयकी अपेक्षासे सभी द्रव्योके निज निज का आधार है। जैसे-किसीसे प्रश्न किया कि तुम कहाँ हो ? तो वह कहता है कि मैं निजमे हूँ । इसी तरह निश्चय नयसे प्रत्येक द्रव्यको स्व स्व
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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