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अध्याय ५ सूत्र १२-१३
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का आधार है । आकाशसे दूसरे कोई द्रव्य बड़े नही है । आकाश सभी ओरसे अनंत है इसलिये व्यवहार नयसे यह कहा जा सकता है कि वह धर्मादिका श्राधार है । धर्मादिक द्रव्य लोकाकाशके बाहर नही है यही सिद्ध करनेके लिये यह आधार - आधेय सम्बन्ध माना जाता है ।
(७) जहाँ धर्मादिक द्रव्य देखे जाते हैं उस श्राकाशका भाग लोक कहलाता है और जहाँ धर्मादिक द्रव्य नही देखे जाते उस भागको अलोक कहते हैं । यह भेद - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव, पुद्गल और कालके कारण होता है, क्योकि धर्म द्रव्य और अधर्मं द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाशमे व्याप्त है । समस्त लोकाकाशमे ऐसा कोई भी प्रदेश नही है (एक भी प्रदेश नहीं है ) जहाँ जीव न हो । तथापि जीव जब केवल समुद्घात करता है तब समस्त लोकाकाशमे व्याप्त हो जाता है । पुद्गलका अनादि अनन्त एक महा स्कन्ध है, जो लोकाकाशव्यापी है और सारा ही लोक भिन्न २ पुद्गलोसे भी भरा हुआ है । कालाणु एक एक ग्रलग अलग रत्नोकी राशि की तरह समस्त लोकाकाश में भरे हुए है ।
ra धर्म अधर्म द्रव्यका अवगाहन बतलाते हैं धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥
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श्रथं - [धर्माधर्मयोः ] धर्म और अधर्म द्रव्यका अवगाह [ कृत्स्ने ] तिलमे तेलकी तरह समस्त लोकाकाश मे है ।
टीका
( १ ) लोकाकाशमें द्रव्यके अवगाहके प्रकार पृथक् पृथक् है, ऐसा यह सूत्र बतलाता है । इस सूत्र में धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्यके अवगाहका प्रकार वतलाया है । पुद्गलके अवगाहका प्रकार १४ वे सूत्रमे और जीवके अवगाहका प्रकार १५ वें तथा १६ वे सूत्रमे दिया गया है । कालद्रव्य असंख्याते अलग अलग है, इसलिए उसका प्रकार स्पष्ट है अर्थात् कहनेमे नही आया, किन्तु इसी सूत्र परसे उसका गर्भित कथन समझ लेना चाहिए ।