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मोक्षशाख ७५४ यह है कि व्यवहारनयके कथनको वह निश्चयनयके कथन मानकर व्यवहार को ही परमार्थ मान लेता है। यह भूल दूर करनेके लिये आचार्य भगवानने इस शास्त्रके प्रथम अध्यायके छ8 सूत्र में प्रमाण तथा नयका यथार्थ ज्ञान करने की आज्ञा की है (प्रमाण नयैरधिगमः ) जो व्यवहारके कथनों को ही निश्चयके कथन मानकर शास्त्रोंका वैसा अर्थ करते हैं उनके उस अज्ञानको दूर करनेके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयसारजी में ३२४ से ३२६ वी गाथा कहों हैं । इसलिए जिज्ञासुओंको शास्त्रोंका कथन किस नयसे है और इसका परमार्थ (-भूतार्थ सत्यार्थ ) अर्थ क्या होता है यह यथार्थ समझकर शास्त्रकारके कथनके मर्मको जान लेना चाहिये, परन्तु भाषाके शब्दोंको नही पकड़ना चाहिये।
६. केवलज्ञान उत्पन्न होते ही मोक्ष क्यों नहीं होता ?
(१) प्रश्न केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय मोक्षके कारणभूत रत्नत्रयकी पूर्णता हो जाती है तो फिर उसीसमय मोक्ष होना चाहिये; इसप्रकार जो सयोगी तथा अयोगी ये केवलियोंके दो गुणस्थान कहे हैं उनके रहने का कोई समय ही नहीं रहता ?
उत्तर-यद्यपि केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय यथाख्यातचारित्र हो गया है तथापि अभी परमयथाख्यातचारित्र नही हुआ । कषाय और योग अनादिसे अनुसंगी-(साथी) हैं तथापि प्रथम कषायका नाश होता है, इसी
* वै गाथायें इस प्रकार हैं.व्यवहार भापितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्थाः । जानंति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किंचित् ॥३२४॥ यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् । न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ॥३२॥ एवमेव मिथ्याटिानी नि:संशयं भवत्येपः । यः परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ।। ३२६ ॥