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________________ अध्याय ८ सूत्र २ ६२५ से विकार करे तो होता है और न करे तो नहीं होता। जैसे अधिक समयसे गरम किया हुआ पानी क्षण में ठण्डा हो जाता है उसीप्रकार अनादिसे विकार (-अशुद्धता) करता पाया तो भी वह योग्यता एक ही समय मात्रकी होनेसे शुद्ध स्वभावके आलम्बनके बल द्वारा वह दूर हो सकता है । रागादि विकार दूर होनेसे कर्मके साथका सम्बन्ध भी दूर हो जाता है। ७-प्रश्न-आत्मा तो अमूर्तिक है, हाथ, पैरसे रहित है और कर्म तो मूर्तिक है तो वह कर्मोको किस तरह ग्रहण करता है ? उत्तर-वास्तवमें एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको ग्रहण नहीं कर सकता इसीलिये यहाँ ऐसा समझना कि जो 'ग्रहण' करना बतलाया है वह मात्र उपचारसे कहा है। जीवके अनादिसे कर्म पुद्गलके साथ सम्बन्ध है और जीवके विकारका निमित्त पाकर प्रति समय पुराने कर्मोके साथ नवीन कर्म स्कन्धरूप होता है-इतना सम्बन्ध बतानेके लिये यह उपचार किया है। वास्तवमे जोवके साथ कर्मपुद्गल नही बँधते किन्तु पुराने कर्म पुगलोके साथ नवीन कर्म पुगलोंका वन्ध होता है; परन्तु जोवमे विकारको योग्यता है और उस विकारका निमित्त पाकर नवीन कर्मपुद्गल स्वयं स्वतः बंधते है इसलिए उपचारसे जीवके कर्म पुद्गलोंका ग्रहण कहा है। -जगतमे अनेक प्रकारके बन्ध होते हैं, जैसे गुणगुणोका बन्ध इत्यादि । इन सब प्रकारके बधसे यह बंध भिन्न है, ऐसा बतानेके लिये इस सूत्रमे बंधसे पहले 'सः' शब्दका प्रयोग किया है। "सः' शब्दसे यह बतलाया है कि जीव और पुद्गलके गुणगुणी संबंध या कर्ताकर्म सम्बन्ध नही है, इसीलिये यहां उनका एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध अथवा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध समझना । कर्मका बन्ध जीवके समस्त प्रदेशोंसे होता है और बन्धमें अनन्तानन्त परमाणु होते हैं। (अ० ८-सू० २४) ६-यहाँ बन्ध शब्दका अर्थ व्याकरणकी दृष्टि से नीचे बतलाये हुये चार प्रकारसे समझना: (१) आत्मा बंधा सो बंध; यह कर्मसाधन है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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