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मोक्षशास्त्र
और यदि सम्यग्दर्शनादिरूप सत्य पुरुषार्थं न करे तो उसका कर्मके साथ
कहाँ तक सम्बन्ध रहेगा ।
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- इस सूत्र में सकषायत्वात् शब्द है वह जीव और कर्म दोनों को ( अर्थात् कषायरूपभाव और कषायरूपकर्म इन दोनोंको ) लागू हो सकता है, और ऐसा होनेपर उनमें से निम्न मुद्दे निकलते हैं ।
(१) जीव अनादिसे अपनी प्रगट अवस्थामें कभी शुद्ध नहीं हुआ किंतु कषायसहित ही है और इसीलिये जीवकर्मका सम्बन्ध अनादिकालीन है । (२) कषायभाववाला जीव कर्मके निमित्तसे नवीन बंध करता है । (३) कषाय कर्मको मोहकर्म कहते हैं, आठ कर्मोमेसे वह एक ही कर्मबन्धका निमित्त होता है ।
(४) पहले सूत्रमे जो बंधके पांच कारण बताये हैं उनमेंसे पहले चारका यहाँ कहे हुये कषाय शब्दमे समावेश हो जाता है ।
(५) यहाँ जीवके साथ कर्मका बन्ध होना कहा है; यह कर्म पुद्गल है ऐसा बतानेके लिये सूत्र में पुद्गल शब्द कहा है । इसीसे कितनेक जीवोंकी जो ऐसी मान्यता है कि 'कर्म आत्माका अदृष्ट गुण है' वह दूर हो जाती है । ४- 'सकषायत्वात्' - यहाँ पाँचवी विभक्ति लगानेका ऐसा हेतु है कि जीव जैसी तीव्र, मध्यम या मन्द कषाय करे उसके अनुसार कर्मोमें स्वयं स्थिति और अनुभागबन्ध होता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । ५ — जीवकी सकषाय अवस्था में द्रव्य कर्म निमित्त है । यह ध्यान रहे कि प्रस्तुत कर्मका उदय हो इसलिये जीवको कषाय करना ही पड़े, ऐसा नही है । यदि कर्म उपस्थित है तथापि स्वयं यदि जीव स्वाश्रयमें स्थिर रह कर कषायरूपसे न परिणमे तो उन कर्मो को बन्धका निमित्त नहीं कहलाता, परन्तु उन कर्मोकी निर्जरा हुई ऐसा कहा जाता है |
६—जीवके कर्मके साथ जो संयोग सम्बन्ध है वह प्रवाह अनादिसे चला आता है किन्तु वह एक ही समय मात्रका है । प्रत्येक समय अपनी योग्यतासे जीव नये नये विकार करता है इसीलिये यह सम्बन्ध चालू रहता है । किन्तु जड़कर्म जीवको विकार नही कराते । यदि जीव अपनी योग्यता